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मज़ाहिर हुसैन

अनुवादक

syed.mazahir@hotmail.com

सैयद मज़ाहिर हुसैन एक अनुभवी सामाजिक कार्यकर्ता और शोधकर्ता हैं, जिनका आठ वर्षों से अधिक का अनुभव है। उन्होंने मानव तस्करी, शहरी पुनर्वास, श्रम अधिकारों, सार्वजनिक स्वास्थ्य और सामाजिक न्याय से जुड़े शोध एवं नीतिगत कार्यों में योगदान दिया है। उनका कार्यक्षेत्र कार्यक्रम प्रबंधन, सामुदायिक सशक्तिकरण और नीति विश्लेषण तक फैला हुआ है। समाजकार्य में परास्नातक डिग्री प्राप्त करने के बाद से, वे हाशिये पर खड़े समुदायों की आवाज़ को मुख्यधारा में लाने के लिए सतत प्रयासरत हैं।

जम्मू-कश्मीर के स्वतंत्रता-सेनानी यासीन मलिक का इंटरव्यू: शिक्षित युवा का बंदूक उठाना कश्मीर के लिए नई बात नहीं है

जम्मू-कश्मीर के स्वतंत्रता-सेनानी यासीन मलिक का इंटरव्यू: शिक्षित युवा का बंदूक उठाना कश्मीर के लिए नई बात नहीं है

दिल्ली की एक अदालत ने हाल में जम्मू-कश्मीर के स्वतंत्रता-सेनानी यासीन मलिक को उम्रकैद की सजा सुनाई। यासीन मलिक की सजा के ऐलान का भारत के एक वर्ग और खासतौर से तथाकथित राष्ट्रवादी मीडिया और उन लोगों ने, जिनके लिए यह मीडिया काम करता है, पुरजोश स्वागत किया। स्वागत के उद्घोष में उन लोगों के संशय, शंका और सवालों को दबा दिया गया जो यासीन मलिक को मिली सजा के बहाने ही सही यह उम्मीद करते रहे थे कि अब कश्मीर के वास्तविक मुद्दों पर कुछ चर्चा हो सकेगी। पता चल सकेगा कि आखिर वह क्या बात है जिसकी वजह से कश्मीर के आम तो क्या पढ़ा-लिखा वर्ग भी भारतीय सरकार के खिलाफ हथियार उठा रहा है? वे कौन-सी घटनाएं हैं जिन्होंने अहिंसक आंदोलन को एकाएक हिंसक और अराजक बना दिया? आखिर क्यों कश्मीर से जनमत संग्रह का वादा करने के बाद भी भारत सरकार उससे मुंह कर गई? और यदि आज़ादी-परस्त कश्मीरियों की आवाज़ को दबाने के लिए भारत सरकार द्वारा किए गए क्रूर बल का प्रयोग अतीत में ब्रिटिश सरकार ने भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों के खिलाफ किया होता तो भारत आज कहां होता? ऐसे ही कुछ सवालों के जवाब यासीन मलिक ने अपने इस इंटरव्यू में दिए हैं। उम्मीद करते हैं कि इस इंटरव्यू को पढ़कर कश्मीर की वास्तविक स्थिति के बारे में जानने के लिए उत्साहित भारतीय नागरिक अपने कुछ सवालों के जवाब पा सकें...

मीर बासित हुसैन
मकबूल भट्ट को कैसे याद करता है त्रेहगाम

मकबूल भट्ट को कैसे याद करता है त्रेहगाम

शहीद-ए-आज़म और बाबा-ए-कौम मकबूल भट्ट को हिंदुस्तान की सरकार ने 11 फरवरी 1984 को तिहाड़ जेल में फांसी दे दी थी। वह कश्मीर के कुपवाड़ा जिले के एक छोटे से गांव त्रेह्गाम से थे, लेकिन आज़ादी की चाह और अपनी मातृभूमि से मोहब्बत के चलते आज वह दुनिया के इस सबसे संघर्षीय और सघन फौजी इलाके से निकलकर विश्व भर में किसी धूमकेतू की तरह प्रकाशमान हैं। हिंदुस्तान में यह भ्रम फैलाया जाता है कि कश्मीर में आज़ादी का संघर्ष पाकिस्तानी चलाते हैं और ज़मीनी स्तर पर आम कश्मीरी जनता को इससे कोई लेना-देना नहीं है। इस लेख को पढ़ने के बाद उम्मीद है कि यह गलतफहमी कुछ हद तक दूर हो सकेगी। इस लेख में आप पढ़ सकते हैं कि मक़बूल को उनके खुद के गांव में आज भी कैसे याद किया जाता है। इससे आपको मक़बूल के लिए लोगों में जो सम्मान और प्यार है, उसका अंदाज़ा होगा। अपनी शहादत के बाद मकबूल भट्ट कश्मीरी आवाम के दिलों में इस तरह जगह बना गए हैं कि आज भी लोग बुरहान वानी जैसे क्रांतिकारियों की तुलना मकबूल भट्ट से करके उनकी प्रशंसा करते हैं। आम कश्मीरियों के बीच यह प्यार और सम्मान सिर्फ मक़बूल के लिए ही नहीं है, बल्कि उन सभी कश्मीरियों के लिए भी है जिन्होंने कश्मीर के ऊपर हिंदुस्तान का कब्ज़ा ख़त्म करने के लिए अपनी जान जोखिम में डाली और गंवाई भी।

नईम राथर
क्या गाय के नाम पर मुसलमानों के प्रति हेट क्राइम ‘नये भारत’ का ही तथ्य है?

क्या गाय के नाम पर मुसलमानों के प्रति हेट क्राइम ‘नये भारत’ का ही तथ्य है?

सौ से भी अधिक वर्षों से गौ रक्षा के नाम पर मुसलमानों की लिंचिंग हो रही है| इसकी बढ़ती संख्या और रिपोर्टिंग का श्रेय कुछ हद तक इंटरनेट की उपलब्धता को दिया जा सकता है और ना कि हिन्दुस्तानी समाज में हुए किसी मूलभूत बदलाव को|

शरजील इमाम
जम्मू-कश्मीर के स्वतंत्रता-सेनानी यासीन मलिक का इंटरव्यू: शिक्षित युवा का बंदूक उठाना कश्मीर के लिए नई बात नहीं है

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दिल्ली की एक अदालत ने हाल में जम्मू-कश्मीर के स्वतंत्रता-सेनानी यासीन मलिक को उम्रकैद की सजा सुनाई। यासीन मलिक की सजा के ऐलान का भारत के एक वर्ग और खासतौर से तथाकथित राष्ट्रवादी मीडिया और उन लोगों ने, जिनके लिए यह मीडिया काम करता है, पुरजोश स्वागत किया। स्वागत के उद्घोष में उन लोगों के संशय, शंका और सवालों को दबा दिया गया जो यासीन मलिक को मिली सजा के बहाने ही सही यह उम्मीद करते रहे थे कि अब कश्मीर के वास्तविक मुद्दों पर कुछ चर्चा हो सकेगी। पता चल सकेगा कि आखिर वह क्या बात है जिसकी वजह से कश्मीर के आम तो क्या पढ़ा-लिखा वर्ग भी भारतीय सरकार के खिलाफ हथियार उठा रहा है? वे कौन-सी घटनाएं हैं जिन्होंने अहिंसक आंदोलन को एकाएक हिंसक और अराजक बना दिया? आखिर क्यों कश्मीर से जनमत संग्रह का वादा करने के बाद भी भारत सरकार उससे मुंह कर गई? और यदि आज़ादी-परस्त कश्मीरियों की आवाज़ को दबाने के लिए भारत सरकार द्वारा किए गए क्रूर बल का प्रयोग अतीत में ब्रिटिश सरकार ने भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों के खिलाफ किया होता तो भारत आज कहां होता? ऐसे ही कुछ सवालों के जवाब यासीन मलिक ने अपने इस इंटरव्यू में दिए हैं। उम्मीद करते हैं कि इस इंटरव्यू को पढ़कर कश्मीर की वास्तविक स्थिति के बारे में जानने के लिए उत्साहित भारतीय नागरिक अपने कुछ सवालों के जवाब पा सकें...

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मकबूल भट्ट को कैसे याद करता है त्रेहगाम

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शहीद-ए-आज़म और बाबा-ए-कौम मकबूल भट्ट को हिंदुस्तान की सरकार ने 11 फरवरी 1984 को तिहाड़ जेल में फांसी दे दी थी। वह कश्मीर के कुपवाड़ा जिले के एक छोटे से गांव त्रेह्गाम से थे, लेकिन आज़ादी की चाह और अपनी मातृभूमि से मोहब्बत के चलते आज वह दुनिया के इस सबसे संघर्षीय और सघन फौजी इलाके से निकलकर विश्व भर में किसी धूमकेतू की तरह प्रकाशमान हैं। हिंदुस्तान में यह भ्रम फैलाया जाता है कि कश्मीर में आज़ादी का संघर्ष पाकिस्तानी चलाते हैं और ज़मीनी स्तर पर आम कश्मीरी जनता को इससे कोई लेना-देना नहीं है। इस लेख को पढ़ने के बाद उम्मीद है कि यह गलतफहमी कुछ हद तक दूर हो सकेगी। इस लेख में आप पढ़ सकते हैं कि मक़बूल को उनके खुद के गांव में आज भी कैसे याद किया जाता है। इससे आपको मक़बूल के लिए लोगों में जो सम्मान और प्यार है, उसका अंदाज़ा होगा। अपनी शहादत के बाद मकबूल भट्ट कश्मीरी आवाम के दिलों में इस तरह जगह बना गए हैं कि आज भी लोग बुरहान वानी जैसे क्रांतिकारियों की तुलना मकबूल भट्ट से करके उनकी प्रशंसा करते हैं। आम कश्मीरियों के बीच यह प्यार और सम्मान सिर्फ मक़बूल के लिए ही नहीं है, बल्कि उन सभी कश्मीरियों के लिए भी है जिन्होंने कश्मीर के ऊपर हिंदुस्तान का कब्ज़ा ख़त्म करने के लिए अपनी जान जोखिम में डाली और गंवाई भी।

नईम राथर
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सौ से भी अधिक वर्षों से गौ रक्षा के नाम पर मुसलमानों की लिंचिंग हो रही है| इसकी बढ़ती संख्या और रिपोर्टिंग का श्रेय कुछ हद तक इंटरनेट की उपलब्धता को दिया जा सकता है और ना कि हिन्दुस्तानी समाज में हुए किसी मूलभूत बदलाव को|

शरजील इमाम

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