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शहादत

अनुवादक

786shahadatkhan@gmail.com

शहादत ने दिल्ली यूनिवर्सिटी के अंबेडकर कॉलेज से बी.ए. (विशेष) हिंदी पत्रकारिता में किया। दिल्ली यूनिवर्सिटी के ही देशबंधु कॉलेज से एम.ए. (हिंदी) किया। उन्होंने अपने करियर की शुरुआत रेख़्ता (ए उर्दू पोएट्री साइट) में प्रुफ रीडर, हिंदी टाइपिस्ट और अनुवादक की पोस्ट से की। इसके बाद वह दो साल एनडीटीवी इंडिया में कार्यरत रहे। वर्तमान में वह फ्रीलांस ‘इंग्लिश से हिंदी’ और ‘उर्दू से हिंदी’ अनुवादक के तौर पर काम करते हैं।

गुजिश्ता सालों में इनकी कहानियां हिंदी साहित्य की चर्चित और स्थापित पत्रिकाओं हंस, कथादेश, कथाक्रम, पहल, मधुमति, वनमाली, विभोम स्वर, नया ज्ञानोदय, जानकीपुल.कॉम, समालोचन.कॉम, उद्भावना, माटी, पाखी, परिकथा और अहा!ज़िंदगी में प्रकाशित हो चुकी हैं। इनकी कहानियों के अनुवाद अंग्रेजी की प्रसिद्ध पत्रिकाओं ‘आउट ऑफ प्रिंट’ और ‘बॉम्बे लिटरेरी मैगजीन’ में प्रकाशित हो चुके हैं।

शहादत का कहानी संग्रह ‘आधे सफ़र का हमसफ़र’ प्रकाशित हो चुका है। इनका दूसरा कहानी संग्रह ‘कर्फ़्यू की रात’ लोकभारती प्रकाशन से शीघ्र प्रकाशय है। अनुवादक के तौर पर शहादत ने हिजाब इम्तियाज़ अली की कहानियों के संग्रह सनोबर के साए और ज़हीर देहलवी की आत्मकथा दास्तान-ए-1857, जो पहले स्वतंत्रता संग्राम पर लिखी गई ऐतिहासिक किताब है, का उर्दू से हिंदी अनुवाद किया है। उन्होंने मकरंद परांजपे की किताब ‘गांधी की हत्या और उसके बाद का उनका जीवन’ का भी अनुवाद किया है, जो पेंग्विन इंडिया से शीघ्र प्रकाशय है।

अकेलापन

अकेलापन

यह कहानी अकेलेपन की एक तीखी, असहज झलक पेश करती है—एक ऐसे पुरुष की जो साथी की तलाश में अपनी गाड़ी पर ‘औरत चाहिए’ का नोट चिपकाता है। लेकिन उसके भीतर की जड़ता, बनावटीपन और हिंसा की प्रवृत्ति धीरे-धीरे उजागर होती है। कहानी का केंद्रबिंदु है एडना—जो पहले जिज्ञासा से खिंचती है, फिर घृणा और अंत में भय के साथ उस अनुभव से खुद को निकाल लेती है। बुकोव्स्की की यह कहानी दिखाती है कि अकेलापन सिर्फ एक भाव नहीं, बल्कि एक डरावनी, अक्सर खतरनाक स्थिति बन सकती है, जब उसमें भावनात्मक गहराई की जगह केवल ज़रूरत और अधूरापन हो।

चार्ल्स बुकोव्स्की
हिंदुत्व की राजनीति और औरंगज़ेब का पुनर्जन्म

हिंदुत्व की राजनीति और औरंगज़ेब का पुनर्जन्म

हर शासक की तरह औरंगज़ेब न तो कोई नैतिक आदर्श थे, न ही महज़ एक खलनायक। एक राजा की तरह उन्होंने भी अपनी प्रजा के प्रति ज़िम्मेदारी को आत्मसात किया था। लेकिन इन सब तथ्यों से इतर, यह भी सच है कि औरंगज़ेब की मृत्यु को तीन सौ साल से ज़्यादा हो चुके हैं। आज उनके ख़िलाफ़ चलाया जा रहा यह अत्यधिक दुश्मनी से भरा अभियान एक अजीब विडंबना को जन्म देता है—वह यह कि यह अभियान खुद उसी विकृत छवि को दोहराता है, जो सत्ता में बैठे लोग औरंगज़ेब को लेकर गढ़ते आए हैं। देश की असली समस्याओं को सुलझाने और देश की सामूहिक ऊर्जा को सकारात्मक दिशा में मोड़ने के बजाय, हमारे नेतृत्व का ध्यान इस समय औरंगज़ेब की क़ब्र पर बहस करने और मस्जिदों के नीचे मंदिर खोजने में लगा हुआ है।

आनंद तेलतुंबडे
वक्त का दरिया

वक्त का दरिया

"पानी और वक़्त जुड़वां भाई हैं, दोनों एक ही कोख से जन्मे हैं।" बहाव चाहे पानी का हो या वक्त का, उसका विरोध करना मुनासिब नही है। वक्त के दरिया के पार हम अपने पूर्वजों से कैसे जुड़े हैं? जुड़े भी हैं कि नही? क्या यह जुड़ाव प्राकृतिक है, या फिर हर चीज की तरह इस जुड़ाव को भी बनाए रखने के लिए सामाजिक शिक्षा की जरूरत है? जुड़ाव चाहे प्राकृतिक हो, उस जुड़ाव का अनुभव ज़रूर सामाजिक है। उस जुड़ाव को चेतना में बनाए रखना हम सब का दायित्व है।

मिया कोउतू
चीनी ख़ुरमा

चीनी ख़ुरमा

“लेकिन उन्हें क्या पता था। उन्होंने सोचा कि लाओ डा एक नरम ख़ुरमा है।”

“उसे अपनी तफ़रीह के लिए ख़ूब निचोड़ा।”

“उसके अंदर से एक क़ातिल निचोड़ कर निकाला।”

“लाओ डा से इस तरह आपा खो देने की उम्मीद बिल्कुल नहीं थी।”

“हैरानकुन बात है कि इंसान कितना कुछ बर्दाश्त करता रहता है और फिर अचानक फट पड़ता है।”

यियुन ली
द कश्मीर फाइल्स: तथ्यों के कंकाल से बना एक भयानक सच

द कश्मीर फाइल्स: तथ्यों के कंकाल से बना एक भयानक सच

‘द कश्मीर फाइल्स’ 1990 के दशक में कश्मीर की ऐतिहासिक सच्चाई बताने या एक निर्वासित समुदाय के घर लौटने को आसान बनाने के लिए नहीं है । इसके बजाय, फिल्म कश्मीरी मुस्लिम को खूंखार जानवर के रूप में दिखाने के लिए बनाई गई है, जिससे सुलह की संभावना और कम हो सके। कश्मीरी पंडित के घर लौटने को एक गौरवशाली प्राचीन अतीत के सपने से जोड़कर यह फिल्म एक ऐसी राजनीतिक परियोजना का हिस्सा बनती है जो कश्मीर के 700 वर्षों के विविध इतिहास को ठुकराकर कश्मीर को वापस हिन्दू मातृभूमि बनाने का बीज बो रही है| यह एक ऐसा विचार है जो बेदखली और उपनिवेशण की मंशा से भरा हुआ है। यही है जो इस फिल्म की “सच्चाई” को खतरनाक बनाता है।

संजय काक
अकेलापन

अकेलापन

यह कहानी अकेलेपन की एक तीखी, असहज झलक पेश करती है—एक ऐसे पुरुष की जो साथी की तलाश में अपनी गाड़ी पर ‘औरत चाहिए’ का नोट चिपकाता है। लेकिन उसके भीतर की जड़ता, बनावटीपन और हिंसा की प्रवृत्ति धीरे-धीरे उजागर होती है। कहानी का केंद्रबिंदु है एडना—जो पहले जिज्ञासा से खिंचती है, फिर घृणा और अंत में भय के साथ उस अनुभव से खुद को निकाल लेती है। बुकोव्स्की की यह कहानी दिखाती है कि अकेलापन सिर्फ एक भाव नहीं, बल्कि एक डरावनी, अक्सर खतरनाक स्थिति बन सकती है, जब उसमें भावनात्मक गहराई की जगह केवल ज़रूरत और अधूरापन हो।

चार्ल्स बुकोव्स्की
वक्त का दरिया

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"पानी और वक़्त जुड़वां भाई हैं, दोनों एक ही कोख से जन्मे हैं।" बहाव चाहे पानी का हो या वक्त का, उसका विरोध करना मुनासिब नही है। वक्त के दरिया के पार हम अपने पूर्वजों से कैसे जुड़े हैं? जुड़े भी हैं कि नही? क्या यह जुड़ाव प्राकृतिक है, या फिर हर चीज की तरह इस जुड़ाव को भी बनाए रखने के लिए सामाजिक शिक्षा की जरूरत है? जुड़ाव चाहे प्राकृतिक हो, उस जुड़ाव का अनुभव ज़रूर सामाजिक है। उस जुड़ाव को चेतना में बनाए रखना हम सब का दायित्व है।

मिया कोउतू
चीनी ख़ुरमा

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“लेकिन उन्हें क्या पता था। उन्होंने सोचा कि लाओ डा एक नरम ख़ुरमा है।”

“उसे अपनी तफ़रीह के लिए ख़ूब निचोड़ा।”

“उसके अंदर से एक क़ातिल निचोड़ कर निकाला।”

“लाओ डा से इस तरह आपा खो देने की उम्मीद बिल्कुल नहीं थी।”

“हैरानकुन बात है कि इंसान कितना कुछ बर्दाश्त करता रहता है और फिर अचानक फट पड़ता है।”

यियुन ली
हिंदुत्व की राजनीति और औरंगज़ेब का पुनर्जन्म

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हर शासक की तरह औरंगज़ेब न तो कोई नैतिक आदर्श थे, न ही महज़ एक खलनायक। एक राजा की तरह उन्होंने भी अपनी प्रजा के प्रति ज़िम्मेदारी को आत्मसात किया था। लेकिन इन सब तथ्यों से इतर, यह भी सच है कि औरंगज़ेब की मृत्यु को तीन सौ साल से ज़्यादा हो चुके हैं। आज उनके ख़िलाफ़ चलाया जा रहा यह अत्यधिक दुश्मनी से भरा अभियान एक अजीब विडंबना को जन्म देता है—वह यह कि यह अभियान खुद उसी विकृत छवि को दोहराता है, जो सत्ता में बैठे लोग औरंगज़ेब को लेकर गढ़ते आए हैं। देश की असली समस्याओं को सुलझाने और देश की सामूहिक ऊर्जा को सकारात्मक दिशा में मोड़ने के बजाय, हमारे नेतृत्व का ध्यान इस समय औरंगज़ेब की क़ब्र पर बहस करने और मस्जिदों के नीचे मंदिर खोजने में लगा हुआ है।

आनंद तेलतुंबडे
द कश्मीर फाइल्स: तथ्यों के कंकाल से बना एक भयानक सच

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‘द कश्मीर फाइल्स’ 1990 के दशक में कश्मीर की ऐतिहासिक सच्चाई बताने या एक निर्वासित समुदाय के घर लौटने को आसान बनाने के लिए नहीं है । इसके बजाय, फिल्म कश्मीरी मुस्लिम को खूंखार जानवर के रूप में दिखाने के लिए बनाई गई है, जिससे सुलह की संभावना और कम हो सके। कश्मीरी पंडित के घर लौटने को एक गौरवशाली प्राचीन अतीत के सपने से जोड़कर यह फिल्म एक ऐसी राजनीतिक परियोजना का हिस्सा बनती है जो कश्मीर के 700 वर्षों के विविध इतिहास को ठुकराकर कश्मीर को वापस हिन्दू मातृभूमि बनाने का बीज बो रही है| यह एक ऐसा विचार है जो बेदखली और उपनिवेशण की मंशा से भरा हुआ है। यही है जो इस फिल्म की “सच्चाई” को खतरनाक बनाता है।

संजय काक

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