2015 में सृनगर के जनरल पोस्ट ऑफिस के पास मकबूल भट्ट की ग्रफीटी । फ़ोटो क्रेडिट: निसार अहमद
अनुवाद: अक्षत जैन और शहादत
स्त्रोत: Maqbool Reborn
सवाल: कॉलेज में आपका समय कैसा था?
जवाब: वो अच्छे दिन थे। उस समय बहुत हड़तालें होती थीं। किसी भी अन्य कश्मीरी की तरह मैं भी चाहता था कि प्लेबिसाइट करवाया जाए।
सवाल: आपने अचानक से पाकिस्तान आने का फैसला क्यों किया?
जवाब: यह बिल्कुल भी अचानक नहीं था। मैंने यहां आने का प्लान बना रखा था। 1957 में शेख अब्दुल्लाह की रिहाई के बाद प्रोटेस्ट हुए और शेख अब्दुल्लाह को फिर से गिरफ्तार कर लिया गया। मार्च-अप्रैल में मेरे एग्जाम थे, लेकिन सभी आज़ादी-परस्त लोगों को गिरफ्तार किया जा रहा था, वे स्टूडेंट एक्टिविस्ट के पीछे भी आ रहे थे। मुझे अंडरग्राउंड होना पड़ा और अगले तीन महीने तक अंडरग्राउंड रहना पड़ा, जब तक कि मेरे एग्जाम का रिजल्ट घोषित नहीं हो गया। उसके बाद मैंने अपने पिता से उसकी एक कॉपी लाने को कहा। फिर मैंने जल्दी में सारे आवश्यक दस्तावेज़ इकट्ठे किए और अगस्त में पाकिस्तान के लिए निकल गया। हमारा पहला ठहराव लाहौर में था, लेकिन 1958 की सितंबर में हम पेशावर चले गए। उस समय मेरे सामने सबसे बड़ी चुनौती रोजी-रोटी कमाते हुए किसी तरह अपनी पढ़ाई जारी रखने की थी। इसके चलते मैंने एक दैनिक अखबार अंजाम में सब-एडिटर के रूप में काम भी किया। मैंने अपना MA उर्दू में किया।
सवाल: उस समय आपको क्या-क्या सीखने को मिला?
जवाब: मैंने हमेशा यह कहा है और मैं आज एक बार फिर यह कह रहा हूं कि जो लोग अपनी लगन और मेहनत से खुद का पेट नहीं भर सकते, वे एक देश को आज़ाद करने में भी सक्षम नहीं हो सकते। वे नेता और बुद्धिजीवी, जिनका एकमात्र लक्ष्य पेट पूजा करना है, वे भी आवाम के लिए कुछ नहीं कर सकते। वे कुछ करने के काबिल ही नहीं हैं।
सवाल: आप पत्रकारिता से आगे बढ़कर राजनीति में कैसे उतरे?
जवाब: शेख अब्दुल्लाह की 1965 में हुई गिरफ़्तारी ने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया। मैंने देखा कि जो लोग आज़ादी की लड़ाई लड़ रहे हैं, कैसे उनका अपने संघर्ष पर ही कोई कंट्रोल नहीं है। मुझे एहसास हुआ कि शुरुआत से लेकर अब तक हमारे संघर्ष में इस मौलिक चीज की कमी है। क्रांति पर लिखी कोई भी किताब उठा लीजिए, उसमें आप यही पाएंगे कि अपने लोगों को शोषण से मुक्त करने के लिए हमें खुद ही शोषण के खिलाफ संघर्ष का नेतृत्व करना होगा। जब तक हम खुद आगे बढ़कर संघर्ष की बागडोर नहीं संभालते, तब तक संघर्ष बेमतलब है। कश्मीर में यही समस्या है। महाज़-ए-रायशुमारी के गठन के साथ हम यह सब बदलना चाहते हैं, यही हमारा बुनियादी सिद्धांत है। कश्मीर की तहरीक़ की बागडोर कश्मीरियों के हाथ में देनी है। दूसरों से यह अपेक्षा करना कि वह आपकी आज़ादी के लिए लड़ेंगे, प्रकृति के नियमों के खिलाफ है। हमने शुरुआत से ही यह कहा है कि राजनीतिक संघर्ष और ज़मीनी संघर्ष को साथ-साथ आगे बढ़ाने की ज़रूरत है। 1965 में प्लेबिसाइट फ्रंट का गठन करने के बाद हमने दोनों स्तरों पर काम करना शुरू किया था। हमारा ध्यान ताशकंद समझौते और उस समय चल रहे युद्ध, दोनों पर पूरी तरह केंद्रित था।
सवाल: क्या आपको ताशकंद के राज़ पता हैं?
जवाब: राज़? एक खुली किताब में कोई राज़ नहीं होता। प्रत्येक अज़ादीपरस्त कश्मीरी को यह ‘राज़’ पता हैं।
सवाल: इसका मतलब?
जवाब: आपने आज़ाद कश्मीर अधिनियम के बारे में तो सुना ही होगा, यह वही अधिनियम है जिसके तहत हाल ही में चुनाव कराए गए। यह अधिनियम ताशकंद समझौते का उपहार है। यह ताशकंद समझौते को हमारे सामने नंगा करके छोड़ देता है।
सवाल: मतलब?
जवाब: जब हिंदुस्तान कश्मीर की बात करता है तो वह आज़ाद कश्मीर और गिलगित-बल्तिस्तान सहित पूरे कश्मीर की बात करता है, उस पूरे क्षेत्र की जो महाराज हरी सिंह के अधीन था। जबकि 1970 का आज़ाद कश्मीर अधिनियम सिर्फ़ उन इलाकों को कश्मीर के रूप में देखता है जो 1947 में आज़ादी पाने में कामयाब हुए थे और जिनको हम आज आज़ाद कश्मीर बुलाते हैं। यथास्थिति की स्वीकृति ही ताशकंद का राज़ है—कि दोनों राज्य वे इलाके रखें जो उनके पास हैं, लेकिन फिर भी हिंदुस्तान को पूरे कश्मीर को अपना अभिन्न हिस्सा बताने की अनुमति मिल जाए। 1970 का आज़ाद कश्मीर अधिनियम संविधान में ‘अंतर्राष्ट्रीय संबंध और नियमों’ के खिलाफ किसी तरह के सुधार करने की इजाज़त नहीं देता। क्या आपको मेरी बात का मतलब समझ आ रहा है? हिंदुस्तान के पास पूरे कश्मीर को अपना बताने की स्वतंत्रता है, जबकि आज़ाद कश्मीर को अंतर्राष्ट्रीय नियमों का पालन करते हुए अपने आपको सीमित करने की ज़रूरत है।
सवाल: आंदोलन को लेकर आपकी आगे की क्या योजना है?
जवाब: हमारे पहले दल ने मई 1967 में कश्मीर में काम करना शुरू किया था। उसने सितंबर 1967 तक सावधानी से काम किया, यानी तब तक जब तक भारत राज्य ने हमारा पीछा करना शुरू किया। कॉर्डन और सर्च ऑपरेशन लॉन्च किया गया, जिसमें हमारे एक साथी की मौत हुई और हमें गिरफ्तार कर लिया गया। यहां मैं यह कहना चाहूंगा कि प्रतिरोधक आंदोलन सिद्धांतों पर आधारित होते हैं और अगर आप अपने सिद्धांतों पर अडिग रहते हैं तो कभी न कभी आपकी जीत ज़रूर होगी। वहीं अगर आप अपने सिद्धांतों के साथ समझौता करते हैं तो हार अनिवार्य है। अल्लाह की रहमत उन्हीं को नसीब होती है जो सच्चाई के रास्ते पर चलते हैं। अगर आप सच्चाई के रास्ते से हटते हैं तो आप अल्लाह से किसी तरह की उम्मीद नहीं रख सकते। अल्लाह उन्हीं लोगों का साथ देता है जो सच्चाई के रास्ते से हटने से इनकार करते हैं . . . हमारे ऊपर मुकदमा अगस्त 1968 में फैसला सुनाए जाने तक चलता रहा। हम तीन लोग थे, दो को मौत की सज़ा मिली और एक को उम्रकैद की। अधिकृत कश्मीर में हमारे 300 से भी अधिक समर्थकों को तीन महीने से लेकर तीन साल तक जेल की सज़ा सुनाई गई। इनमें स्टूडेंट, इंजीनियर, टीचर, ठेकेदार, दुकानदार वग़ैरह शामिल थे। 22 अक्तूबर 1968 को हमने जेल से भागने की योजना बनाना शुरू की और 8 दिसंबर को रात के लगभग 2 बजकर 10 मिनट पर हमें कामयाबी मिली। मेरे और मेरे दोस्त के साथ भागने वाला तीसरा कैदी आज़ाद कश्मीर का था। हमें आज़ाद कश्मीर के पहले चेक-पोस्ट तक पहुंचने में 16 दिन लगे। 25 दिसंबर को हम मुज़फ्फराबाद पहुंचे। 25 दिसंबर 1968 से लेकर मार्च 1969 तक मुज़फ्फराबाद में हमारी पूछताछ चली और उसके बाद हमें रिहा कर दिया गया। नवंबर 1969 में हम लोग वार्षिक प्लेबिसाइट फ्रंट सम्मेलन के लिए इकट्ठे हुए और वहां मुझे पार्टी का लीडर नियुक्त किया गया।
सवाल: आप अधिकृत कश्मीर में कैसे काम करते हैं और अब तक आपने क्या उपलब्धियां हासिल की हैं?
जवाब: पूरे कश्मीर में हमारे स्लीपर सेल मौजूद हैं। हम उन्हें वे सब साधन मुहैया करा पाए हैं जिनकी उन्हें अपने काम को आगे बढ़ाने के लिए ज़रूरत है। हमारी सबसे बड़ी उपलब्धि, जिसका मुझे सबसे ज्यादा गर्व है, यह है कि हमारे साथ काम करने वाला हर साथी/कार्यकर्ता, जो कि किसी भी प्रतिरोधक नेटवर्क की रीढ़ की हड्डी की तरह होता है, हमसे जुड़ा हुआ है और हमारे कार्य के प्रति पूरी तरह से प्रतिबद्ध है। किसी भी क्रांति के लिए दो चीजें आवश्यक हैं। पहला, आवाम आपकी तरफ होनी चाहिए, जो यहां पहले से है। हमको उनकी राजनीतिक समझ और परिपक्वता की सराहना करनी चाहिए। आवाम तैयार है, हमें बस उनकी ऊर्जा को सही दिशा देने की जरूरत है। दूसरा, शिक्षा और संघर्ष। मैदानी इलाकों में कार्यनीति अलग होती है। वहां सेना या पुलिस को किसी इलाके को घेरने में चंद मिनट ही लगते हैं, लेकिन कश्मीर में अकेला व्यक्ति ही सौ से अधिक लोगों को रोक सकता है, दूसरे पक्ष को नुकसान पहुंचाने की संभावना भी कहीं अधिक होती है। स्लीपर सेल की स्थापना के पीछे भी यही सोच थी। सारी मोमबत्तियां एक साथ जलाने के बजाए हमने एक मोमबत्ती से दूसरी मोमबत्ती जलाई। अंत तक, रोशनी सब जगह पहुंची और हमारे सीमित संसाधन बरकरार रहे। हम जहां भी गए, हमें निराशा का सामना नहीं करना पड़ा। जब हम पकड़े गए, तब हम अपनी कार्यनीति का परीक्षण ही कर रहे थे। किसी न किसी तरह इस घटना ने हमें अपने रास्ते पर चलने के लिए और मजबूत बना दिया। पिछले तीन सालों में हमने बहुत कुछ हासिल किया है। अब खेल बिल्कुल बदल गया है। अब हम न सिर्फ हिंदुस्तान से उसी भाषा में बात करते हैं जो उसको समझ आती है, जिससे मेरा मतलब है ताक़त की भाषा, साथ ही हम कश्मीर को भी दुनिया के नक्शे पर लाने में कामयाब हुए हैं। उसी दुनिया के, जिसने हमेशा हमारी पीड़ा को नजरअंदाज़ किया। यह दुनिया आपके अस्तित्व के बारे में दो कौड़ी की चिंता नहीं करती, उन्हें आपकी आवाज़ सुनने के लिए मजबूर करना पड़ता है और हमने वही किया है। अब वे पूरे कश्मीर को सुनेंगे।
सवाल: क्या यह गुरिल्ला युद्ध की शुरुआत है?
जवाब: कश्मीर में गुरिल्ला युद्ध बहुत समय से चल रहा है, बात बस इतनी है कि हमने दांव बढ़ा दिए हैं। यह युद्ध जारी रहेगा, इसमें जितना हम योगदान दे पाएंगे, यह उतना सफल होगा। दुश्मन को आराम करने का मौका नहीं दिया जा सकता। चाहे वह नदियों, पहाड़ों, जंगलों, फैक्ट्रियों, घरों, ऑफिसों या फिर कहीं भी हो, हमें उससे लड़ते रहना होगा और आगे बढ़ते रहना होगा। और जब वह थक जाएगा, तब हम उसका सिर कलम कर देंगे, जिससे वह फिर से न उठ सके। इंशाल्लाह, हम उससे तब तक लड़ेंगे जब तक वह हमारी मांगों के आगे झुक नहीं जाता। हिंदुस्तान को हमारी बातें सुनने में वक्त लग सकता है, लेकिन मुझे पूरा यक़ीन है कि जब सुनने और अपना अस्तित्व खोने के बीच चुनने का समय आएगा, वह सुनना चुनेगा और हमारे साथ बैठकर बात करने को तैयार होगा।
सवाल: आपके आज़ाद और खुदमुख्तार कश्मीर पर क्या खयाल हैं?
जवाब: (मकबूल पास में पड़ी राखदानी उठाते हुए कहते हैं) यह राखदानी होटल की है। क्या मैं इसे आपको तोहफे में दे सकता हूं? या फिर आपको बेच सकता हूं? नहीं, कभी नहीं। अगर मैं इसका मालिक नहीं हूं तो मुझे ऐसा करने का कोई हक़ नहीं है। क्या कश्मीर एक स्वतंत्र देश होगा या फिर वह पाकिस्तान का हिस्सा बनेगा, यह सब बाद के मसले हैं। पहले हमें कश्मीर को आज़ाद करने की ज़रूरत है। फिर लोग खुद ही फैसला कर लेंगे कि उन्हें क्या करना है। मेरा ईमान यह कहता है कि लोग जो भी फैसला करेंगे, वह कभी गलत नहीं हो सकता। आम सहमति महत्वपूर्ण है, उसकी इस्लामी न्यायशास्त्र में भी अहम भूमिका होती है। अगर कोई आम सहमति पर सवाल उठाता है तो मुझे उसके ईमान पर शक होगा। हम वही करेंगे जो आवाम चाहती है।