मोहम्मद अली जिन्ना को दोषमुक्त करार देने का वक्त आ गया है

विभाजन से भारतीय मुसलमानों को सबसे ज़्यादा नुकसान हुआ, लेकिन इसका दोष जिन्ना या मुस्लिम लीग के ऊपर लादना इतिहास की ना-समझी भरी व्याख्या होगी।

मोहम्मद अली जिन्ना को दोषमुक्त करार देने का वक्त आ गया है

 

अनुवाद: मज़ाहिर हुसैन 
स्त्रोत: The Wire

जब कभी मोहम्मद अली जिन्ना समाचार व्याख्याओं का हिस्सा बनते हैं तो हिंदुस्तानी मुसलमान अपने सह-हिन्दू राष्ट्रवादियों की असुरक्षा से परिपूर्ण सम्वेदनाओं को खुश करने में लग जाते हैं। इसके चलते भारतीय मुसलमान पाकिस्तान के संस्थापक की देश और कौम को नुकसान पहुंचाने के लिए आलोचना करने लगते हैं। ऐसा तब हुआ जब एलके एडवानी 2005 में जिन्ना के मकबरे पर गए थे। करीब एक दशक के बाद अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (एएमयू) के केस में ऐसा फिर से हो रहा है। 

आधुनिक भारतियों के चित्त और जिन्ना के बीच का संबंध बहुत जटिल है। खासकर, हिंदू सहित अधिकतर भारतीय जिन्ना के प्रति एक तरफ तो क्रोध की भावना रखते हैं, लेकिन दूसरी तरफ उनकी राष्ट्रवादी पृष्ठभूमि के कारण वे उनके लिए शोक भी मनाते हैं।  

जिन्ना को एक ऐसे व्यक्ति के रूप में देखा जाता है जो सत्ता की महत्वाकांक्षा के कारण सांप्रदायिक कैम्प में जा गिरा और जिसने देश के विभाजन में अहम भूमिका निभाई। हालांकि, कई पीढ़ियों से उनके खिलाफ द्वेषपूर्ण अभियान चलाए जाने के बावजूद, हिन्दुस्तानी मुसलमानों में जिन्ना और विभाजन की कुछ यादें बची हैं। उनमें से कई के लिए जिन्ना विभाजन के प्रणेता हैं, लेकिन फिर भी वह पिछली सदी में “मुस्लिम भारत” के सबसे बड़े नेताओं में से एक हैं, जिन्होंने ब्रिटिश इंडिया में सैकड़ों लोगों को संगठित करके मुस्लिम लीग को राष्ट्रीय पार्टी बनाया।

इन विरोधात्मक छवियों के बीच जो तनाव है, वह समय-समय पर प्रत्यक्ष रूप से हमारे सामने आ जाता है, जैसा कि एक बार फिर एएमयू के केस में हो रहा है। जिन्ना की तस्वीर, जो 1938 से वहां लगी हुई है, हमें याद दिलाती है कि एक समय पर जिन्ना “मुस्लिम भारत” के अति-महत्वपूर्ण लीडरों में गिने जाते थे। इस प्रकार के अंतर्विरोध और आवेग कुछ ऐसे तथ्यों की ओर इशारा करते हैं जिनसे हमें यह समझ आता है कि हिंदुस्तानी जनता विभाजन के पहले के दस साल में हुए वाद-विवाद या पाकिस्तान बनाने के आंदोलन के बारे में पूरी तरह से अवगत नहीं है, और उसकी इन सब विषयों के बारे में ज्यादातर समझ अधिप्रचार और राष्ट्रवाद के प्रति दिखावटी प्रेम की सामाजिक ज़रूरत से प्रभावित है।  

एएमयू में विरोध प्रदर्शन. स्त्रोत: PTI

जिन्ना के रहस्यमयी व्यक्तित्व से पर्दा हटाने और ऊपर पेश अंतर्विरोधों को हल करने के लिए विभाजन पर व्यापक चर्चा हमारी शैक्षिक व्यवस्था का हिस्सा होनी चाहिए थी। लेकिन जिन्ना के ऐतिहासिक व्यक्तित्व के ऊपर विभाजन की हिंसा की ज़िम्मेदारी लाद देने के कारण उन्हें जानना लगभग नामुमकिन हो गया है। यह कांग्रेस द्वारा मुसलमानों की मूल मांगों और राजनीतिक आनुपातिक प्रतिनिधित्व की आकांक्षाओं को जगह देने की विफलता को छिपाने का एक प्रयास है। 

कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच अहम मुद्दे

कांग्रेस खुद की आत्मरक्षा के लिए ‘एक-राष्ट्र’ का तकिया-कलाम रटने लगती है, जिससे वह ‘राष्ट्र’, ‘समाज’ या ‘लोकतंत्र’ पर बारीक चर्चाओं को नामुमकिन बना देती है। कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच विवाद के सबसे अहम मुद्दे थे: मुस्लिम प्रतिनिधित्व, निर्वाचन क्षेत्र और केंद्र-राज्य संबंध। ये वे मुद्दे थे, जिनके लिए मुस्लिम राजनीतिक पार्टियां कांग्रेस से दो दशकों से भी अधिक समय से आश्वासन की उम्मीद कर रही थीं।

1934 में लंदन से वापस आने और मुस्लिम लीग की बागडोर संभालने के बाद भी जिन्ना इन मुद्दों पर कांग्रेस से समझौते की उम्मीद बांधे हुए थे। जिन्ना ने कांग्रेस के लीडरों के ऊपर इस उम्मीद में भरोसा ज़ाहिर किया कि वे इन विषयों पर साझेदारी से समझौते की तरफ बढ़ेंगे। अगर उन्होंने ऐसा किया होता तो हिन्दुस्तानी मुसलमान कांग्रेस लीडरशिप से निराश नहीं होते।

हालांकि, इन तीन विषयों की विभाजन के संबंध में कम ही चर्चा होती है। इनके बजाय सांप्रदायिकता, अखिल-इस्लामवाद या ‘नया मदीना’ जैसे छलावों को विभाजन के हिंदुस्तानी आख्यानों में ज़्यादा महत्व दिया जाता है। अधिकतर मुस्लिम पार्टियों ने मिलिटरी, सेवाओं और कानून बनाने वाली सभाओं में मुस्लिम प्रतिनिधित्व की गारंटी की मांग को सामने रखा था। शासन व्यवस्था में मुसलमानों की हिस्सेदारी निर्धारित करने की भी मांग की गई थी, जिससे वे भेदभाव के कारण पीछे न छूट जाएं, जिसके होने का खतरा उस समय की बारंबार होने वाली मुस्लिम-विरोधी भीड़-हिंसा के संदर्भ में वास्तविक था।     

मुसलमानों के पिछड़े वर्गों का प्रतिनिधित्व करने वाली मोमिन कांफ्रेंस जैसी राजनीतिक पार्टियों ने मुस्लिम समाज के भीतर पिछड़े समाजों के लिए अधिक सुरक्षा और आरक्षण की भी मांग की। खास तौर से, मुस्लिम लीग की अध्यक्षता करने के दौरान जिन्ना ने कांग्रेस से मुस्लिम समाज के लिए सेना में संवैधानिक हिस्सेदारी को लेकर रज़ामंदी की मांग की, क्योंकि जिन्ना का मानना था कि, “राजनीतिक अधिकार राजनीतिक शक्ति से उत्पन्न होते हैं।” अगर दोनों समुदाय “एक-दूसरे के प्रति आदर और भय” के साथ जीना नहीं सीखते तो किसी भी प्रकार का समझौता केवल कागज़ के एक टुकड़े के बराबर ही होगा।  

तीसरा अहम मुद्दा भविष्य के हिंदुस्तान में केंद्र को राज्यों के एवज में अधिक महत्व देने का था। जहां मुस्लिम बाहुल्य राज्य राज्यों के लिए अधिक शक्ति की मांग कर रहे थे, वहीं कांग्रेस दिल्ली में शक्ति केंद्रीकृत करने के पक्ष में थी। केंद्र-राज्य के इस विषय का संबंध वीटो के मुद्दे से भी जुड़ा हुआ है। अगर प्रभावशाली केंद्र की संसद में एक मुस्लिम के अनुपात में तीन हिंदु होंगे, और किसी बिल पर सारे हिंदू वोट करेंगे और कोई भी मुसलमान वोट नहीं करेगा, तब भी वह बिल तीन-चौथाई बहुमत से पास हो जाएगा। इसका मतलब यह कि किसी मुस्लिम प्रतिनिधि के मत के बिना भी ऐसा कानून पास किया जा सकता है जो इतने बड़े उपमहाद्वीप के पूरे सिस्टम को प्रभावित करे। जिन्ना का ऐसा मानना था कि यह अनुपातिक तरीके से लोकतांत्रिक नहीं है। उनका कहना था कि यह एक राष्ट्र का दूसरे राष्ट्र के ऊपर “मतदान पेटी के द्वारा” राज करने का उदाहरण होगा, और इससे बचने का सिर्फ एक तरीका यह होगा कि मुस्लिम समुदाय को हर स्तर के वैधानिक सदनों में वीटो पावर मिले।      

ये सारी मांगे सांप्रदायिक अधिकारों से संबंध रखती हैं। सांप्रदायिकता ऐसा शब्द है जिसे कांग्रेस ने इस हद तक बदनाम कर रखा है कि हम इसके पुराने और अधिक तार्किक अर्थ को भूल गए हैं। सांप्रदायिकता का संबंध अपने संप्रदाय से है, और उपनिवेशिक दौर के बहुत सारे बुद्धिजीवी और राजनेता इसी अर्थ में इस शब्द का इस्तेमाल करते थे। केवल कांग्रेस के इस शब्द के अभी तक किए गए इस्तेमाल के कारण हमने इसकी नकारात्मक समझ बनाई है। ‘सांप्रदायिक’ होने का यह मतलब बिल्कुल भी नहीं की हम किसी दूसरे के विरुद्ध द्वेष या पूर्वाग्रह रखें। इसका मतलब सिर्फ अपने समुदाय के साथ अपनी पहचान के सार को समझना-जीना है।

अल्पसंख्यकों के अधिकार

ब्रिटिश इंडिया में लंबवत और क्षैतिज रूप से विभाजित बहुत सारे समुदाय थे जो एक-दूसरे के साथ विवाह नहीं करते थे। मुसलमान और हिन्दू भी ऐसे ही लंबवत रूप से विभाजित समाज थे, जैसे जाती आधारित क्षैतिज रूप से विभाजित समुदाय भी मौजूद थे। हम उस समय और आज भी बेनेडिक्ट एंडर्सन की Imagined Communities (कल्पित समुदाय) के अकादमिक अर्थ में एक राष्ट्र नहीं हैं। जिन्ना की दलील थी कि हम तभी एक राष्ट्र बन सकते हैं जब हम अल्पसंख्यकों को सुरक्षित महसूस कराएं और जो राजनीतिक पार्टी अल्पसंख्यकों की तरफदारी करेगी वह सांप्रदायिक होगी। कांग्रेस ने ‘सांप्रदायिकता’ का अर्थ कुछ इस तरह तोड़ा-मरोड़ा कि वह एक अपमानजनक सूचक में बदल गया। ठीक इसी तरह से कांग्रेस ने ‘सेक्युलरिज्म’ शब्द का भी गबन कर दुरुपयोग किया और उसे एक नया अर्थ दे दिया। उस शब्द का इस्तेमाल मुसलमानों को संवैधानिक अधिकारों और हकों से वंचित करने के लिए किया गया।     

अतः, संप्रभुता के ये मुद्दे, समुदाय और राष्ट्र के बीच के संबंध के ऊपर वाद-विवाद, या यह प्रश्न कि ‘क़ौम’ का मतलब समुदाय है या राष्ट्र, विभाजन से जुड़ी चर्चाओं का केंद्र रहे हैं।

मोहम्मद अली जिन्ना. स्त्रोत: junaidrao/Flickr (CC BY-NC-ND 2.0)

क्या सिर्फ मेरा पड़ोसी होने के नाते ही किसी को मेरी ओर से बिना किसी योग्यता या बाधा के कानून बनाने का अधिकार है? क्या दो समुदायों को एक राष्ट्र बोला जा सकता है, जब वे एक-दूसरे के साथ न विवाह करते हों और न ही साथ में खाना खाते हों? क्या बहुसंख्यक लीडरों के झूठे आश्वासनों के आधार पर अल्पसंख्यकों को, जिनके खिलाफ बहुसंख्यकों के बीच प्रचंड पूर्वाग्रह मौजूद हों, अपने सारे अधिकारों का समर्पण कर देना चाहिए? क्या इतने बड़े उपमहाद्वीप में एक प्रभावशाली केंद्र पर ऐसे समुदाय का प्रभुत्व स्वीकार कर लेना चाहिए जिसकी संख्या आपके मुकाबले तीन गुनाह हो, और वह भी जब तब अल्पसंख्यकों के पास वीटो का कोई प्रावधान न हो? क्या बहुसंख्यक एकतरफा संविधान का संशोधन कर सकते हैं क्योंकि उनके पास तीन चौथाई बहुमत है? इस परिस्थिति में अन्याय और अनुचित बर्ताव के डर से क्या उत्तर पश्चिमी और पूर्वी प्रांतों की तरह कुछ प्रांत अलग हो जाने का निर्णय नहीं ले सकते? इन सारे सवालों पर सबसे ज़्यादा लिबरल (उदारवादी) व्यक्ति भी गंभीर राष्ट्रवादी में तब्दील होकर भारत की एकता और जनता में भाई बंधुत्व इत्यादि की बात करने लग जाते हैं। लेकिन मुझे लगता है कि ये सारे सवाल ऐसी बड़ी चर्चाओं के केवल शुरुआती बिन्दु हैं, जो हिंदुस्तानी मुसलमानों के बिगड़ते हालात के चलते बारंबार होती रहेंगी।

जिन्ना और मुस्लिम लीग

हम फिर से जिन्ना की तरफ रुख करते हैं। मुस्लिम लीग की बागडोर संभालने के बाद उन्होंने इस पार्टी का नेतृत्व अगले दो चुनावों में किया। 1937 में कांग्रेस ने 70 प्रतिशत हिंदू वोट हासिल कर हिन्दू निर्वाचक वर्ग को संगठित किया, लेकिन मुस्लिम वोट यूनियनिस्ट पार्टी, मुस्लिम इंडिपेंडेंट पार्टी और कृषक प्रजा पार्टी जैसे क्षेत्रीय दलों में बंट गया।  

फिर भी, केवल मुस्लिम लीग ही ऐसी पार्टी उभरकर निकली जिसको पूरे हिंदुस्तान में वोट मिले और लगभग 10 प्रतिशत मुसलमानों के वोट मिले। इस पड़ाव पर कांग्रेस ने मुस्लिम दलों के साथ किसी भी प्रकार की साझेदारी कि संभावना को नकार दिया; बहुत सारे कांग्रेसियों और जमीयत के मुसलमानों ने इस संबंध में लिखा भी है। कांग्रेस के मुस्लिम अल्पसंख्यक प्रदेशों में दो साल के शासन के दौरान मुस्लिम विरोधी हिंसा में इज़ाफ़ा देखा गया, और इसी कारण मुस्लिम लीग की इन प्रदेशों में लोकप्रियता बढ़ी।

यह भी याद करना जरूरी है कि चूंकि कांग्रेस को मुस्लिम वोट लगभग न के बराबर ही मिल रहे थे तो मुस्लिम लीग अन्य मुस्लिम दलों को ही हरा रही थी। इन्हीं सालों में जिन्ना ने और कई महत्वपूर्ण साझेदारियों की नीव रखी, जिसमें झारखंड के आदिवासियों का प्रतिनिधित्व करने वाले दल और अनुसूचित जातियों का प्रतिनिधित्व करते डॉ बी.आर. अंबेडकर जैसे उत्कृष्ट लीडर शामिल थे।

मुस्लिम लीग के नेता, 1940. स्त्रोत: Wikimedia Commons

1946 तक, जब अंग्रेज़ वापस जाने की तैयारियां कर रहे थे, मुस्लिम वोटर पूरी तरह से जिन्ना के साथ हो गए थे और पूरे ब्रिटिश इंडिया में लगभग 80 प्रतिशत मुस्लिम वोट मुस्लिम लीग को मिला। कांग्रेस को इसी संभावना का डर था, क्योंकि लगभग न के बराबर मुस्लिम वोट मिलने के बावजूद भी वह मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करने का दावा कर रही थी।

इसीलिए अंतिम चरण के समझौतों में जिन्ना भिन्न प्रकार के मुस्लिम दलों के एकमत नेता बनकर उभरे और उन्होंने उन सारी मांगों को फिर से दोहराया, जो दशकों से लंबित पड़ी थीं। इनमें से अधिकतर मांगें कांग्रेस को मंजूर नहीं थीं, और कांग्रेस ने कैबिनेट मिशन प्लान स्वीकार करने के बाद भी खारिज कर दिया, जिसके बारे में मौलाना आज़ाद ने अपनी किताब इंडिया विंस फ्रीडम में विवरण दिया है। इस संदर्भ में यह तर्क देना बहुत कठिन होगा कि मुसलमानों के पास विभाजन या गृह युद्ध के अलावा कोई और विकल्प बचा था। 

विभाजन के बाद के हिंदुस्तान में जिन्ना

विभाजन के बाद भारत में जिन्ना के संबंध में जो चर्चाएं हावी रही हैं, उनमें से कुछ सामान्य बिन्दु इस प्रकार हैं: उनका अधार्मिक होना, उनकी सांप्रदायिकता, कैसे अंग्रेजों द्वारा उनका इस्तेमाल डिवाइड एण्ड रूल पॉलिसी को चलाने के लिए किया गया, और कैसे उन्होंने हिंदुस्तानी मुसलमानों को कमजोर कर उन्हें नुकसान पहुंचाया।   

अधार्मिक होने का आरोप बमुश्किल ही साबित किया जा सकता है, क्योंकि इस प्रकार की सोच को नापने का कोई मानक उपलब्ध नहीं है। शरीयत, मुस्लिम बहुल्य राष्ट्रों की भू-राजनीतिक परिस्थिति या इस्लाम से उत्पन्न सामाजिक संरचना पर उनकी समझ को मापने के लिए उनके भाषणों को पढ़ना या उनके लंबे विधायी कैरियर में उनके द्वारा प्रस्तुत किए गए सुधारों का आंकलन करना काफी होगा। उनकी उपनिवेशिक शिक्षा को अक्सर उनकी भारतीय वास्तविकता से दूरी का कारण बताया जाता है।

हालांकि, यह आरोप भी साबित करना मुश्किल है, क्योंकि उस समय के ज़्यादातर बड़े राजनेता बाहर के देशों से शिक्षा प्राप्त करके आए थे।

जिन्ना की सांप्रदायिकता एक सकारात्मक सांप्रदायिकता है, जिसके संबंध में हम इस लेख में पहले भी चर्चा कर चुके हैं। इसलिए उस शब्द की समझ हमें उसके समकालीन मतलब से नहीं बनानी चाहिए। जिन्ना भारत को राष्ट्र के रूप में संकल्पित नहीं करते थे, जैसा कि हमें उनके द्वारा ‘महाद्वीप’ और ‘उपमहाद्वीप’ जैसी शब्दावली का इस्तेमाल होने की वजह से दिखाई देता है। समुदायों के इस महासागर में वह केवल एक समुदाय का प्रतिनिधित्व कर रहे थे, और इसी प्रक्रिया में वह बाकी सब अल्पसंख्यक समुदायों के अधिकारों के लिए भी लड़ रहे थे।

उन पर अक्सर यह आरोप लगाया जाता है और अन्य कुछ सवालों के साथ पृथक निर्वाचक मंडलों के ऊपर भी सवाल उठता है। मैंने पहले भी पृथक निर्वाचक मंडलों के संबंध में चर्चा की है। उसके साथ एक बात और याद रखने की है कि पृथक निर्वाचक मंडलों के खारिज होने के बाद मोमिन कान्फ्रेन्स भी चुनावी रूप से अस्तित्व में नहीं रह पाई थी। संरक्षण हटने के बाद पिछड़े हुए मुस्लिम वर्गों की सभी पार्टियां ढह गईं। 

दूसरी तरफ, पाकिस्तान कांग्रेस ने पूर्वी पाकिस्तान में हुए पहले चुनाव में 30 से भी ज़्यादा सीटें जीतीं, क्योंकि वहां पृथक निर्वाचक मंडलों को खारिज नहीं किया गया था। अतः यह सच है कि अंग्रेज़ मुसलमानों और हिंदुओं को बांटने के लिए तत्पर थे, लेकिन इसका मतलब यह बिल्कुल भी नहीं कि पृथक निर्वाचन मंडलों या संप्रभुता से जुड़े मुद्दों का वास्तविकता से कोई ताल्लुक नहीं था, और यह केवल बल हासिल करने हेतु संभ्रांत वर्ग की चालबाज़ी थी।

भारतीय मुसलमान

आखिर में विभाजन के कारण अधिक कमजोर महसूस कर रहे भारतीय मुसलमान का शिकवा। सबसे पहले, यह सच है कि विभाजन के कारण सबसे ज़्यादा नुकसान हिंदुस्तानी मुसलमानों को उठाना पड़ा है, अपितु इसका दोष जिन्ना को या मुस्लिम लीग को देना इतिहास की बहुत गलत समझ होगी। जिन्ना का यह तर्क था कि क्योंकि बहुसंख्यकों के पास वे सारे संसाधन हैं जिनके द्वारा वे सत्ता पर अपना कब्जा बनाए रख सकते हैं, इसलिए बिना सुरक्षण की गारंटी के कोई फर्क नहीं पड़ता कि हम 15 प्रतिशत हैं या 25 प्रतिशत। दूसरे शब्दों में कहें तो, क्योंकि किसी और प्रकार का विकल्प सामने नहीं था, इसलिए मुस्लिम बहुल्य प्रान्तों ने हिन्दू-प्रभुत्व वाली शक्तिशाली केंद्रीय व्यवस्था के भारत के बजाय अपने आप को अलग करना चुना। इसलिए विभाजन के लिए वे जवाबदेह नहीं हैं, कांग्रेस द्वारा बनाई गई परिस्थितियों के कारण वह उनकी मजबूरी थी।    

दूसरी बात यह कि विभाजन के बाद पैदा हुई हिंदुस्तानी मुसलमानों की पीड़ा जिन्ना का करा-धरा नहीं है। हिंदुस्तान में मुसलमानों की हत्या दक्षिणपंथियों और दमनकारी राज्य द्वारा हमेशा से होती आई हैं। उनके प्रतिनिधित्व के सवालों को राज्य ने अपने पैरों तले शुरुआत से ही रौंदा है और उन्हें शक्ति के हर क्षेत्र से बाहर रखा गया है। यहां तक कि पृथक निर्वाचन मंडलों का अधिकार, जो जिन्ना के पाकिस्तान में हिंदुओं को दिया गया, वह भारत के मुसलमानों को नहीं मिला। तो जिन्ना ने हमें नुकसान नहीं पहुंचाया है, बल्कि कांग्रेस और उनके उत्तरदायी भारतीय जनता पार्टी ही हमारे शोषक हैं।

जिन्ना ने कुछ ऐसे सवालों को उठाया, जो आज भी प्रासंगिक हैं। दुनिया में धार्मिक आधार पर सबसे बड़ी अल्पसंख्यक कौम होने के नाते हिन्दुस्तानी मुसलमान बहुसंख्यक लोकतंत्र के सबसे बड़े शिकारों में से एक हैं। यह उन सैकड़ों मुहाजिर मुसलमानों की राजनीतिक लड़ाई है, जो आने वाले समय में बहुलवादी लोकतंत्र के अर्थ को परिभाषित करेगी।

एएमयू में जिन्ना का लगी तस्वीर नहीं हटनी चाहिए। हमें ऐसे हजारों और तस्वीरों की ज़रूरत है।

 

 

शरजील इमाम
शरजील इमाम

शरजील इमाम ने आईआईटी बॉम्बे से कंप्युटर इंजीनियरिंग में स्नातक की पढ़ाई करी है| वे जेएनयू से मॉडर्न हिस्ट्री में पीएचडी कर रहे थे जब उन्हें एनआरसी/सीएए के खिलाफ आंदोलन में भाग लेने के लिए गिरफ्तार कर लिया गया| शरजील इमाम ने आईआईटी बॉम्बे से कंप्युटर इंजीनियरिंग में स्नातक की पढ़ाई करी है| वे जेएनयू से मॉडर्न हिस्ट्री में पीएचडी कर रहे थे जब उन्हें एनआरसी/सीएए के खिलाफ आंदोलन में भाग लेने के लिए गिरफ्तार कर लिया गया|