माओवाद और हिंसा

आपने हिंदुस्तान की मीडिया में यह सब बकवास तो बारंबार सुनी ही होगी कि माओवादी हिंसक हैं, बुरे लोग हैं, आतंकवादी हैं इत्यादि और उनका खात्मा करना भारत देश को बचाने के लिए जरूरी है। लेकिन मीडिया के भाड़े के टट्टुओं के ऐसी कमरों से परे एक असल दुनिया है, जिसमें माओवादियों की बेहद इज़्ज़त की जाती है। क्योंकि माओवादी उनके हक के लिए लड़ते हैं जिनको सरकार और पूंजीपतियों के षड्यन्त्र से सरेआम कुचला जाता है। इस लेख में आप खुद एक प्रख्यात माओवादी की ओर से सुन सकते हैं कि माओवादी कौन हैं और क्या चाहते हैं। आप यह पढ़ कर अपने जाहिलीयत भरे विचार में अडिग रह सकते हैं कि माओवादी बुरे लोग हैं और भारतीय सेना बहुत अच्छी लेकिन कम से कम अपना मन बनाने से पहले दोनों पक्षों को सुनना तो जरूरी है ही ना।

माओवाद और हिंसा


अनुवाद: अक्षत जैन

 
भारत सरकार के सीपीआई (माओवादी) को राजनीतिक दल की मान्यता देने से इनकार करने पर मैं तीन बातें रखना चाहता हूं। पहली, भारतीय सरकार नक्सल मुद्दे का हल सेना से करने के लिए तत्पर है; वह हमें आतंकवादी बताकर बम से उड़ा देना चाहती है। अगर सरकार सीपीआई (माओवादी) को राजनीतिक दल का दर्जा देती है तो उसे आवश्यक ही सबसे पहले राजनीतिक हल ढूंढने की कोशिश करनी पड़ेगी। लेकिन आप एक बार अपने दुश्मन को आतंकवादी करार दे दें और यह प्रचारित करें कि वह एक खूनी बाग़ी है, जो बेमतलब की हिंसा में विश्वास रखता है, तो उसके बाद उसे बम से उड़ाने में कोई अड़चन नहीं आती।

दूसरी, वे कुख्यात व्याख्यान, जो माओवादियों को बाग़ियों के समान बताते हैं, वे इस देश की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टियों में से एक की विचारधारा, राजनीतिक प्रोग्राम, रणनीति और कार्यनीति के बारे में केवल अपनी जहालत का बयान करते हैं। सच तो यह है कि मुख्यधारा की कोई भी पार्टी लोकतांत्रिक कार्य पद्धति में हमारी पार्टी का मुकाबला नहीं कर सकती। हमारी पार्टी हर दो साल में हर स्तर पर पूर्ण बैठक करती है, जितने ज्यादा हो सकें उतने सम्मेलन आयोजित करती है और हर पांच साल में केन्द्रीय महासम्मेलन आयोजित करती है। पार्टी की हर समिति इन सम्मेलनों और बैठकों में चुनी जाती है। सिर्फ़ पार्टी में ही नहीं, हमारे सभी जन-संगठनों, जन-शक्ति के अंगों और अन्य विभागों में भी ऐसा ही होता है। आप अंदाजा लगा सकते हैं कि आक्रामक दुश्मन से लगातार घिरी अन्डरग्राउन्ड पार्टी के लिए इस तरह के लोकतांत्रिक उपकरणों का इस्तेमाल करना कितना मुश्किलों से भरा होता होगा।

तीसरी, मुझे यह कहना चाहिए कि हमारे जानी दुश्मन से मिला ‘बाग़ी’ का  यह ख़िताब हमारे लिए असल में गर्व की बात है। जब हम अपने दुश्मन के लहज़े को आक्रामक होता देखते हैं तो हमें दोगुना आश्वासन मिलता है कि हम सही राह पर हैं। जब कोई कहता है कि सीपीआई (माओवादी) राजनीतिक पार्टी है तो अर्नब गोस्वामी जैसे लोग बौखला उठते हैं। वह चिल्लाने लगता है कि इन्स्पेक्टर के सिर को धड़ से अलग करने वाली पार्टी राजनीतिक पार्टी कैसे हो सकती है? पर यह तो स्कूल जाता बच्चा भी जानता है कि सिर्फ़ सिर धड़ से अलग करना ही नहीं, बल्कि हजारों मुसलमानों, सरदारों और ईसाइयों को ज़िंदा जलाने और मारने, अल्पसंख्यक समुदायों की औरतों के बलात्कार करने और दस हजार से भी ज्यादा क्रांतिकारियों की सामूहिक हत्याओं का आयोजन करने पर भी कांग्रेस और भाजपा को राजनीतिक पार्टियों का दर्जा हासिल है। पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश, बिहार, तमिलनाडु, केरल और अन्य कई राज्यों में शासक वर्गों के बीच चल रही लड़ाई में इस तरह की क्रूर हिंसा की अनेक कहानियां हैं। फिर ये राजनीतिक विशेषज्ञ किस तर्क के आधार पर यह दावा करते हैं कि कुछ लोगों को दंड देने के कारण माओवादी राजनीतिक पार्टी कहलाने के अयोग्य हो गए?

लोगों के ऐसा दिखाने की कोशिश के बावजूद, माओवादी क्रूर एवं हिंसक न्याय के पक्ष में नहीं हैं। माओवादी गुरिल्ला डाकू या भाड़े के गुंडे नहीं हैं। माओवादी मानव जीवन का बेहद सम्मान करते हैं। कोई भी असली कम्युनिस्ट हिंसा के पक्ष में नहीं होता। कम्युनिस्ट समानता और न्याय के आधार पर बनी शांतिपूर्ण सामाजिक व्यवस्था के पक्षधर हैं। विश्व सर्वहारा वर्ग की अंतर्राष्ट्रीय टुकड़ी की कई क्रांतिकारी टुकड़ियों में से हम एक हैं और हम खुद को व्यापक विश्वव्यापी साम्राज्यवाद विरोधी मोर्चे के हिस्से के रूप में देखते हैं।

हमारे जन-संगठन इंटरनेशनल लीग ऑफ पीपुल्स स्ट्रगल (आईएलपीएस) का हिस्सा हैं और साम्राज्यवाद के खिलाफ संघर्ष में सबसे आगे हैं। इंडिया में हमारी पार्टी ने 1960 के दशक के अंत के क्रांतिकारी उभार के संदर्भ में जन्म लिया था, खासकर गौरवशाली नक्सलबाड़ी विद्रोह के साथ-साथ। इसलिए भारतीय राजनीतिक धारा में जो भी क्रांतिकारी है, हम उसके अविभाज्य अंग हैं। हम तेलंगाना सशस्त्र किसान विद्रोह (1946–51), 1946 का तेभागा विद्रोह और 1921 में जन्म के बाद कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा किए गए सभी संघर्षों के उत्तराधिकारी हैं। कम्युनिस्ट क्रांतिकारी राजनीतिक तौर पर (अपने कार्यक्रम के संदर्भ में) देश में सभी सामंतवाद और साम्राज्यवाद विरोधी ताकतों की अधिक व्यापक लोकतांत्रिक धारा के हिस्सेदार हैं। यह हमारी नई लोकतांत्रिक क्रांति के प्रोग्राम का मूल है। इस प्रोग्राम के जरिये हम उन सभी को एक व्यापक मोर्चे में साथ लाना चाहते हैं, जो साम्राज्यवाद, सामंतवाद और अमरीकियों की दलाली करने वाले नौकरशाही पूंजीवाद के खिलाफ खड़े हैं। जिससे हम सब मिलकर हमारे दुश्मनों को सत्ता से उखाड़ सकें और श्रमिक वर्ग, किसान, शहरी कामगार और राष्ट्रीय मध्य वर्ग के गठबंधन से सरकार बना सकें।

हमारा यह मानना है कि आखिर में सत्ता अपने हाथ में लेने के लिए जनता को सशस्त्र संघर्ष करना ही पड़ता है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि हम सशस्त्र संघर्ष के चलते बाकी सब तरह के संघर्ष को ठुकरा देते हैं और ऐसा करके राज्य को लोगों पर अपनी क्रूर शक्ति का प्रयोग करने के लिए आमंत्रित करते हैं। इसके बजाय, जब बाकी सब तरह के संघर्ष मंज़िल हासिल करने में नाकाम साबित होते हैं, जब बाकी सब तरह के संघर्षों को राज्य पैरों तले रौंद देता है, सिर्फ़ तभी हम हिंसक और सशस्त्र संघर्ष का रास्ता चुनते हैं। यह समझना बहुत जरूरी है। चूंकि हम सशस्त्र संघर्ष की बात करते हैं, इसलिए शासक वर्ग के लिए माओवादियों को हर तरह की हिंसा के लिए जिम्मेदार ठहरना आम हो गया है।

इस कारण से वह इस नतीजे पर पहुंचते हैं कि माओवादियों से बातचीत करने का कोई फायदा नहीं। ये मूर्ख लोग हर चीज को मूर्ख बनाकर ही समझ पाते हैं: माओवादी राज्य को उखाड़ फेंकने के लिए हिंसा और सशस्त्र संघर्ष में विश्वास रखते हैं; इसका मतलब यह है कि वे अंतहीन हिंसा में लिप्त हैं; जिन लोगों की विचारधारा हिंसा पर आधारित हो, उनसे बात करने का कोई फायदा नहीं; इसलिए माओवादियों को जैसे हो सके वैसे कुचलने के अलावा राज्य के पास और कोई विकल्प नहीं है। उनका तर्क करने का यही तरीका है। ऐसा किसने बोला कि हम यह मानते हैं कि सशस्त्र संघर्ष के अलावा सभी संघर्ष अवैध हैं? हम सभी तरह के संघर्षों को वैध मानते हैं। जगत्याला में हमने सामाजिक बहिष्कार अपनाया था। कैदखानों सहित बहुत-सी जगहों पर हमारे साथी भूख हड़ताल करते हैं। इनके साथ-साथ हम विरोध प्रदर्शन भी करते हैं। सशस्त्र संघर्ष भी एक तरह का संघर्ष है और उसका महत्व दुश्मन की कार्रवाई पर निर्भर है।

यह उम्मीद रखना कि शासक वर्ग आज बेहतर सामाजिक व्यवस्था की मांगों को मानने के लिए तैयार हो जाएगा, इतिहास से सीखे गए सभी पाठों को ठुकराना होगा। अगर यह विकल्प संभव होता तो शासक वर्ग करीमनगर और दिलाबाद के वैध आंदोलनों पर वार क्यों करता? जब 1978 में चेन्ना रेड्डी की सरकार ने अशांत क्षेत्र अधिनियम लागू किया था, तब कोई सशस्त्र गतिविधि नहीं हो रही थी। ज़मीनदारों और पुलिसवालों के हमलों का कोई कैसे सामना कर सकता है? माओवादियों की हिंसा पर इतना ध्यान केंद्रित करना असली मुद्दे से भटकाना है, जो कि यह है कि मौजूदा सिस्टम में जनता को रोजमर्रा की हिंसा झेलनी पड़ती है। उत्पीड़कों की हिंसा के कारण की गई माओवादियों की हिंसा मुख्य मुद्दा नहीं है; मुख्य मुद्दा सिर्फ़ और सिर्फ़ न्याय है। अगर नक्सलवादियों की हिंसा की बात करनी ही है, तो उसकी बात हमारे सिस्टम के हर स्तर पर चल रही हिंसा के संदर्भ में होनी चाहिए। अगर इस ढांचे में और इस परिप्रेक्ष्य से नहीं देखा जाएगा, तो हम हिंसा के संरचनात्मक कारणों को समझने के बजाय ‘हिंसा ही हिंसा को जन्म देती है’ जैसी बुर्जुआ अवधारणा के शिकार बन जाएंगे। 

कुछ मानवाधिकार समूह और मीडिया के लोग ऐसा बर्ताव करते हैं कि मानो वे किसी खेल के रेफरी हों। दोनों पक्षों की समान निंदा करके उनको ऐसा प्रतीत होता है कि वे जंग में निष्पक्ष हो रहे हैं। अगर कोई कहे कि अंग्रेजों के शासन की दो सदियों के दौरान अंग्रेज और भारतीय दोनों ही हिंसा के लिए जिम्मेदार थे, तो क्या आप उनकी बात मान लेंगे? कोई भी अज़ादीपरस्त व्यक्ति यही कहेगा कि भारत में खून-खराबा अंग्रेज उपनिवेशवादियों के कारण हुआ। स्कूलों की मर्यादा का उल्लंघन करने के लिए सुरक्षा बलों और माओवादियों दोनों की निंदा करके ये मानवाधिकार समूह समझते हैं कि वे निष्पक्ष होने की भूमिका निभा रहे हैं। लेकिन वे यह नहीं समझ रहे हैं कि किसने हिंसा की शुरुआत की और हिंसक घटनाएं किसके कारण हो रही हैं। वे खुद से यह आसान-सा सवाल तक नहीं पूछते: अगर पुलिस और अर्धसैनिक बल स्कूलों पर कब्ज़ा नहीं करेंगे तो माओवादी स्कूलों पर हमला क्यों करेंगे?

क्या आपको पता है कि बहुत से गांवों में माओवादी दस्तों ने नहीं बल्कि खुद गांव वालों ने स्कूल तोड़ डाले, क्योंकि वे नहीं चाहते थे कि सुरक्षा बल आकर उनके गांव में डर का माहौल पैदा करें? आप माओवादियों और गांव वालों से यह आश्वासन कैसे मांग सकते हैं कि वे स्कूलों की मर्यादा का पालन करेंगे, जब वे स्कूल उनके उत्पीड़कों द्वारा कब्ज़ाए जा चुके हैं, या कब्ज़ाए जाने की संभावना रखते हैं?

क्या हम ‘विकास’ को रोकते हैं? क्या इस बात का कोई तुक है कि वे माओवादी, जो जनता के हित में काम करते हैं, वे ऐसी किसी भी चीज का विरोध करेंगे जो सचमुच जनता के लिए फायदेमंद हो? अगर वे ऐसा करेंगे तो क्या वे जनता का समर्थन हासिल कर पाएंगे? अगर हम जनता की इच्छा के खिलाफ कुछ भी कर रहे हैं, तो आप जनता के बीच हमारी बढ़ती लोकप्रियता को कैसे समझाएंगे? सवाल यह है कि हमारे शासक माड़ (बाहरी लोगों के लिए अभुजमाड़ या अज्ञात ज़मीन) जैसी जगहों पर सड़कें, पक्की स्कूल इमारतें और हेलीपैड क्यों बनाना चाह रहे हैं?

सच यह है कि हमारे शासक रावघाट से लेकर माड़ तक संपूर्ण प्राकृतिक संपदा का दोहन करने की योजना बना रहे हैं और इसीलिए इतनी तेजी के साथ सड़कें बनाई जा रही हैं।

मगर क्योंकि इस इलाके में माओवादी अच्छे से जमे हुए हैं, इसलिए प्रतिक्रियावादी शासकों के लिए इलाके की प्राकृतिक संपदा लूटने से पहले उन्हें दबाना जरूरी है। प्रधानमंत्री तक ने कहा है कि कैसे वामपंथी उग्रवादी के कंट्रोल वाले इलाकों में देश की प्राकृतिक संपदा दबी हुई है। इसलिए तथाकथित लाल गलियारे या रेड कॉरिडोर को माओवादियों से ‘आज़ाद’ करने की बातें चल रही हैं। इससे अधिक महत्वपूर्ण यह है कि शासक इन इलाकों से आदिवासियों को निष्कासित कर उन्हें हमेशा के लिए कहीं और बसाने की योजना बना रहे हैं। इस इलाके में भारत के सबसे पुराने आदिवासी समाजों में से एक, मलाईगोंड बसते हैं। ‘विकास’ के कारण अब उनका अस्तित्व भी खतरे में है। हम सिर्फ़ उन विकास योजनाओं का विरोध करते हैं जो आदिवासी हितों को नुकसान पहुंचाती हैं, जो इलाके की प्राकृतिक संपदा की लूट को आसान बनाती हैं, जो यहां के आदिवासियों को अपनी ज़मीनों और जंगलों से बेदखल करती हैं और जो उनके जीने के तरीके और संस्कृति का विनाश करती हैं। यह बिल्कुल गलत धारणा है कि हम हर तरह के विकास के खिलाफ हैं।

तो पहली चीज, जिस पर मैं ज़ोर डालना चाहूंगा, वह यह है कि हमारी जनता की जंग ने उन इलाकों में जहां हम संघर्ष कर रहे हैं, वहां रहने वाली जनता के भयानक शोषण और उत्पीड़न पर रोक लगा दी है। सिर्फ़ इसी ने ही उनकी ज़िंदगी बहुत बेहतर बना दी है। ग़ुलामी और जानवर जैसी ज़िंदगी जीने के बजाय, यह दबी-कुचली जनता अब पहले से अधिक स्वतंत्रता में रहती है और अपनी ज़िंदगी और नियति को खुद नियंत्रित करती है। मैं यह भी बताना चाहूंगा कि जब से हमने तेंदू पत्तों के दलालों, बांस के दलालों, जंगल विभाग, सड़क बनाने वाले ठेकेदारों, व्यापारियों, साहूकारों, जमींदारों इत्यादि के शोषण और उत्पीड़न के खिलाफ संघर्ष शुरू किया है, तब से जनता की असल आय काफी बढ़ गई है।

इन संघर्षों के जरिये आदिवासी किसान अपनी आय और जीवन स्तर में वृद्धि कर पाए हैं। जनता सरकार के गठन के बाद से कृषि उत्पादकता में सुधार के साथ-साथ सहकारी समितियों के गठन, पारस्परिक सहायता दल, स्थानीय संसाधनों के उचित उपयोग, लघु वनोपज का विपणन, पोल्ट्री फार्म और सुअर पालन की स्थापना, मछली पालन और अन्य उत्पादक गतिविधियों से लोगों की ज़िंदगियों में और भी सुधार आए हैं।

हमने आदिवासियों की भाषा का विकास किया है, उनकी मातृभाषा में पाठ्य-पुस्तकें छापी हैं। इस प्रकार उनकी संस्कृति और समृद्ध विरासत को बढ़ावा दिया है। इसके साथ-साथ जंगलों की सुरक्षा और कृषि उत्पादन में सुधार के लिए सचेत जन-आंदोलन भी चल रहा है। अब हमारे किसी भी गांव से कोई भी झगड़े सुलझाने पुलिस स्टेशन नहीं जाता, तो लाज़मी है कि पुलिस वाले अपनी अवैध आय खोने के कारण गुस्से में हैं। एक या दो दशक पहले के मुकाबले स्वास्थ्य की स्थिति में भारी सुधार आया है। हमने गांवों में बुनियादी चिकित्सा सुविधाएं स्थापित की हैं। हालांकि, यह सब विकास देश के मौजूदा सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था के ढांचे में हो रहा है,  इसलिए इसकी कुछ सीमाएं हैं। साथ ही, भारतीय राज्य और उसके भाड़े के गुंडों के निरंतर हमले विकास में बाधा पैदा कर रहे हैं और कहीं-कहीं तो जो हमने हासिल किया है, उसे बर्बाद भी कर रहे हैं।   

हम भारत के सभी शांतिप्रिय, लोकतांत्रिक संगठनों और लोगों से अपील करते हैं कि वे समझें कि हम किस परिप्रेक्ष्य में तथाकथित सुरक्षा बलों का विरोध करने पर मजबूर हुए हैं। इन तथाकथित सुरक्षा बलों ने मोर्टार, लाइट मशीनगनों और बमों के साथ आदिवासी इलाकों में आतंक मचा रखा है। जब डाकू आपका घर लूटने आते हैं तो आपको मजबूरन उनसे लड़ना ही पड़ता है। बिल्कुल यही माओवादियों के नेतृत्व में इन सभी इलाकों की जनता कर रही है। जब सीआरपीएफ के डाकू आदिवासियों के घर लूटने आएं तो क्या उनका पलटवार करना न्यायोचित नहीं है? हमसे ज्यादा ताकतवर दुश्मन पर हमारी वीर पीएलजीए द्वारा किया गया साहसी हमला सिर्फ़ इसलिए मुमकिन हो पाया, क्योंकि हमारी पार्टी और गुरिल्ला बलों के पास जनता का भारी समर्थन है। शांति हासिल करने का कोई शॉर्ट-कट नहीं होता। जनता द्वारा सबसे दृढ़ और वीरतापूर्ण विद्रोह ही जंग-प्रिय भारतीय उपनिवेशिकों को हरा सकता है और लोकतांत्रिक शांति ला सकता है।

मुट्ठीभर गुरिल्ला का वीरतापूर्ण विद्रोह गुरिल्ला युद्ध की श्रेष्ठता दर्शाता है। यह साफ-साफ बतलाता है कि माओवादियों के पास जनता का भारी समर्थन है। यह प्रदर्शित करता है कि माओवादी गुरिल्ला बहुत बेहतर हथियारों से लैस और गिनती में कहीं ज्यादा अधिक दुश्मन को जनता के समर्थन से हरा सकते हैं, क्योंकि हम जनता के समुद्र में मछली की तरह तैरते हैं। बिना किसी विकल्प के सुझाए, माओवादियों के तरीके को ठुकराने का मतलब है लोगों का नुकसान करना। क्योंकि सिर्फ़ एक हमारा सशस्त्र संघर्ष ही है जो इन इलाकों के लोगों की ज़िंदगियों में कुछ सुधार ला सका है।

नवीन पट्टनायक का माओवादियों को हथियार डालने के लिए आह्वान करना उतना ही बेवकूफी भरा है जितना किसी को उससे यह कहना कि वह ओडिशा के लोगों का शोषण और उत्पीड़न करना बंद करे और साम्राज्यवादियों और उद्योगपतियों की चापलूसी करना बंद करे। हमारा सशस्त्र संघर्ष तब तक जारी रहेगा जब तक राज्य और उसके साथ मिले हुए टाटा, मित्तल, अंबानी, अडानी, जिंदल इत्यादि जैसे उद्योगपतियों का शोषण, उत्पीड़न और दमन जारी है।

जब राज्य के सशस्त्र बल हर तरह के जनआंदोलन का क्रूर दमन कर रहे हों तो आप केवल एक तरफ की सेना को हथियार डालने के लिए कैसे कह सकते हैं? जब वे गैर-लड़ाकों को मारना, पकड़े गए या ज़ख्मी लड़ाकों का कत्ल करना, लोगों के हाथ-पैर काटना, हर किसी को टॉर्चर करना, आदिवासी औरतों का बलात्कार करना बंद कर देंगे और हमारे साथ सभ्य एवं कानूनी तौर से पेश आएंगे, तब हम ज़रूर हथियार डालने के बारे में सोचेंगे।  

आखिर में, अगर माओवादियों ने शांतिपूर्वक कानूनी काम करना है, जैसा कि कुछ लोग हमसे चाहते हैं, तो यह तो तय है कि सरकार को हमारे ऊपर से प्रतिबंध हटाना होगा। जब तक ऐसा नहीं होता, हम कानूनी संघर्ष या मीटिंग कैसे आयोजित कर सकते हैं? अगर हम ऐसा करेंगे तो क्या इन चीजों को गैरकानूनी नहीं करार दिया जाएगा, क्योंकि यह प्रतिबंधित पार्टी द्वारा किया जा रहा है। हमारे ऊपर प्रतिबंध लगाना साफ तौर पर अलोकतांत्रिक और फासीवादी कृत्य है। सिर्फ़ इस प्रतिबंध के हटने पर ही लोकतंत्र को बढ़ावा मिल सकता है और बातचीत का वातावरण बन सकता है।          

 

चेरुकुरी राजकुमार (उर्फ आज़ाद)
चेरुकुरी राजकुमार (उर्फ आज़ाद)

चेरुकुरी राजकुमार (1952-2010), जिनको आज़ाद के नाम से जाना जाता था, कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (माओईस्ट) के सदस्य थे। अमीर जमींदारों के परिवार में जन्म लेने के बावजूद उन्होंने सामाजिक न्याय में दिलचस्पी ली और अपना घरबार छोड़ मध्य भारत के जंगलों में माओवादी आंदोलन में पूरी तरह से लग गए। महाराष्ट्र और... चेरुकुरी राजकुमार (1952-2010), जिनको आज़ाद के नाम से जाना जाता था, कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (माओईस्ट) के सदस्य थे। अमीर जमींदारों के परिवार में जन्म लेने के बावजूद उन्होंने सामाजिक न्याय में दिलचस्पी ली और अपना घरबार छोड़ मध्य भारत के जंगलों में माओवादी आंदोलन में पूरी तरह से लग गए। महाराष्ट्र और कर्नाटक में पार्टी को बढ़ावा देने में उनका बहुत बड़ा योगदान था। वे आदिवासियों, किसानों और सर्वहारों के लिए बेहतर जीवन बनाने की कल्पना करते थे। ऐसा माना जाता था कि उनके बेहतरीन काम और लगन के कारण वे पार्टी के लीडर चुने जाएंगे लेकिन 2010 में भारत सरकार ने अपनी पुलिस का इस्तेमाल करके उनका बेरहमी से कत्ल कर दिया।