जम्मू-कश्मीर के स्वतंत्रता-सेनानी यासीन मलिक का इंटरव्यू: शिक्षित युवा का बंदूक उठाना कश्मीर के लिए नई बात नहीं है

दिल्ली की एक अदालत ने हाल में जम्मू-कश्मीर के स्वतंत्रता-सेनानी यासीन मलिक को उम्रकैद की सजा सुनाई। यासीन मलिक की सजा के ऐलान का भारत के एक वर्ग और खासतौर से तथाकथित राष्ट्रवादी मीडिया और उन लोगों ने, जिनके लिए यह मीडिया काम करता है, पुरजोश स्वागत किया। स्वागत के उद्घोष में उन लोगों के संशय, शंका और सवालों को दबा दिया गया जो यासीन मलिक को मिली सजा के बहाने ही सही यह उम्मीद करते रहे थे कि अब कश्मीर के वास्तविक मुद्दों पर कुछ चर्चा हो सकेगी। पता चल सकेगा कि आखिर वह क्या बात है जिसकी वजह से कश्मीर के आम तो क्या पढ़ा-लिखा वर्ग भी भारतीय सरकार के खिलाफ हथियार उठा रहा है? वे कौन-सी घटनाएं हैं जिन्होंने अहिंसक आंदोलन को एकाएक हिंसक और अराजक बना दिया? आखिर क्यों कश्मीर से जनमत संग्रह का वादा करने के बाद भी भारत सरकार उससे मुंह कर गई? और यदि आज़ादी-परस्त कश्मीरियों की आवाज़ को दबाने के लिए भारत सरकार द्वारा किए गए क्रूर बल का प्रयोग अतीत में ब्रिटिश सरकार ने भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों के खिलाफ किया होता तो भारत आज कहां होता? ऐसे ही कुछ सवालों के जवाब यासीन मलिक ने अपने इस इंटरव्यू में दिए हैं। उम्मीद करते हैं कि इस इंटरव्यू को पढ़कर कश्मीर की वास्तविक स्थिति के बारे में जानने के लिए उत्साहित भारतीय नागरिक अपने कुछ सवालों के जवाब पा सकें...

जम्मू-कश्मीर के स्वतंत्रता-सेनानी यासीन मलिक का इंटरव्यू: शिक्षित युवा का बंदूक उठाना कश्मीर के लिए नई बात नहीं है

पटचित्र: मीर सुहैल 

अनुवाद: मज़ाहिर हुसैन
स्त्रोत: Youth Ki Awaaz
प्रकाशन तिथि: 28 जनवरी 2016

यासिन मलिक जम्मू और कश्मीर लिबरेशन फ़्रंट के अध्यक्ष हैं। उनका मानना है कि कश्मीर में किए गए शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन इसलिए सफल नहीं हुए, क्योंकि कश्मीर में उनके लिए कोई जगह नहीं है। यासिन मलिक उन पहले कश्मीरी लड़कों में से हैं जिन्होंने हिंदुस्तानी शासन व्यवस्था के ख़िलाफ़ हथियार उठाए और गोली चलाई। मलिक का यह भी मानना है कि शिक्षित युवाओं द्वारा हथियार उठाना कश्मीर के लिए नई बात नहीं है। मलिक ने मुझे अबी गुज़र (सेंट्रल सृनगर) के अपने कार्यालय में बातचीत के दौरान बताया,

“जो स्थिति 1984, 85, 86 एवं 87 में थी वही आज भी है। हम लोग उस समय के अहिंसा युक्त लोकतांत्रिक संघर्ष की उपज हैं। उस संघर्ष में हमारे साथ क्या हुआ? हमने रेड-16 जैसे पूछताछ केंद्रों का अनुभव किया। हमने मार का सामना किया, सड़ा हुआ खाना खाया, दूषित पानी पिया और शारीरिक एवं मानसिक यातनाएं झेलीं। हमारे माता-पिता को उस समय पुलिस द्वारा बहुत बुरी तरह प्रताड़ित किया गया। इन कारणों की वजह से उस पीढ़ी ने सशस्त्र संघर्ष करने का फ़ैसला किया।”

यासीन मलिक। Reuters/बी माथुर  

मलिक ने बात को आगे बढ़ाते हुए कहा कि कश्मीर का ‘5000 साल पुराना’ इतिहास ‘अहिंसक’ रहा है। इसके साथ ही उन्होंने सवाल किया,“लेकिन आपको इस बात को समझना होगा कि वह क्या चीज़ थी जिसके चलते नौजवानों को ऐसा कदम उठाने का फ़ैसला लेना पड़ा? जब ऐसी कोई जगह नहीं बचेगी जहां लोग अहिंसक लोकतांत्रिक संघर्ष कर सकें, तो लोग और क्या करेंगे?”

कुछ विश्लेषकों के हिसाब से यासीन मालिक कश्मीर में नई पीढ़ी के श्रेष्ठतम नेताओं में से एक हैं। इस सूची में पूर्व सीएम और नेशनल कॉन्फ्रेंस के अध्यक्ष ओमर अब्दुल्ला और जम्मू और कश्मीर पीपुल्स डेमोक्रेडिक पार्टी (पीडीपी) नेता महबूबा मुफ़्ती भी शामिल हैं। मलिक का विश्वास रहा है कि साम्राज्यवादी होने के बावजूद, अंग्रेजों के शासन ने गांधी के अहिंसक संघर्ष को जगह दी। अंग्रेज़ी हुकूमत इस मामले में बहुत ‘समझदार’ निकली। मलिक ने बताया, “उस समय  गांधीवादी अहिंसक संघर्ष प्रगति पर था। गांधी ने अहिंसा की जो अवधारणा दी उससे मार्टिन लूथर किंग और नेल्सन  मंडेला समेत अन्य व्यक्तियों ने प्रेरणा ली। तो आपको अंग्रेज़ी हुकूमत को इस बात के लिए सराहना चाहिए कि  उस हुकूमत ने गांधी के  अहिंसात्मक संघर्ष को जगह और मान्यता दी। गांधी या उसके साथी,  अंग्रेजों द्वारा चलाए जा रहे पूछताछ केंद्रों में कभी नहीं भेजे गए। उनके परिवार के सदस्यों को न तो कभी प्रताड़ना झेलनी पड़ी और न ही उन्हें पुलिस स्टेशनों  में घोर यातनाओं का सामना करना पड़ा।”

मलिक के अनुसार, लोगों के लिए सिर्फ गांधीवादी रास्ता ही खुला नहीं था, इसे अन्य तरह के रास्तों के साथ मुक़ाबला करना पड़ा था। मलिक ने तर्क दिया, “उस समय भारतीय उप महाद्वीप में दो राजनीतिक सिद्धांत प्रचलित थे: पहला गांधीवादी और दूसरा भगत सिंह, चंद्र शेखर आज़ाद, अशफउल्लाह ख़ां, राजगुरु, राम प्रसाद बिसमिल जैसों का, जो सशस्त्र संघर्ष से आज़ादी हासिल करने में विश्वास रखते थे। ये सभी गांधी के ख़िलाफ़ थे। किंतु गांधीवादी विचारधारा इसलिए पनप पाई क्योंकि उसे अंग्रेजों ने जगह दी।

मलिक ने बताया कि जब कश्मीरियों ने 2008, 09 और 10 में अमरनाथ मंदिर को ज़मीन दान में दिए जाने के खिलाफ अहिंसक संघर्ष किया तो हिंदुस्तान की सरकार ने उसी क्रूर बल का प्रयोग किया जैसा कि वह 80 के दशक में उन जैसे लोगों पर किया करती थी। उन्होंने कहा,“हमारे साथ जो कुछ 1980 के आख़री सालों में हो रहा था वही पिछले चार-पांच सालों से फिर दोहराया जा रहा है। 2008 के वर्ष में जब हमने कश्मीरियों का हिंसा से अहिंसा की तरफ़ सामूहिक रूपांतरण होते  हुए देखा तो हिंदुस्तानी राज्य ने फिर से कश्मीरियों के ख़िलाफ़ क्रूर सैन्य बल का प्रयोग किया और 72 लोगों को गोलियों  से मार डाला। हिंदुस्तान ने 2009 में 44 लोगों को और 2010 में 135 लोगों को मौत के घाट उतारा। उसके बाद राज्य ने 7,000 युवकों को हिरासत में ले लिया, जो अपने आप में एक रिकॉर्ड  था। बात यहीं खत्म नहीं हुई। फिर हमने देखा कि कैसे उनके माताओं और पिताओं को सेना द्वारा प्रताड़ना, दुर्व्यवहार, और टॉर्चर का सामना करना पड़ा।”

मलिक ने सुरक्षा एजेंसियों को अपने ही क़ानूनों का उल्लंघन करने का दोषी ठहराया, क्योंकि उन्होंने आज़ादी की लड़ाई में शामिल या संगबाज़ी (पत्थरबाज़ी) करने के ‘जुर्म’ में वांछित लड़कों के माताओं और पिताओं को हिरासत में रख कर प्रताड़ित किया। हिंदुस्तान का तो क्या दुनिया का कोई कानून ऐसा करने की इजाज़त नहीं देता। मलिक ने सुरक्षा एजेंसियों को ‘अपहरणकर्ता’ का दर्जा दिया। उन्होंने कहा,

हमने ऐसे बहुत से लड़कों को देखा है जो उस अहिंसक संघर्ष में हिस्सा लेने के बाद सशस्त्र संघर्ष की राह पर चल दिए। तो ऐसी क्या बात थी जिसकी वजह से वे अहिंसक संघर्ष का हिस्सा होने के बाद हिंसा का रास्ता अपनाने पर मजबूर हुए? इसका मतलब यह कि  अहिंसावाद के लिए कश्मीर में कोई जगह नहीं बची। अगर आप सिर्फ़ संगबाज़ी के मामले में पुलिस द्वारा वांछित हैं तो आपके माता-पिता को पुलिस स्टेशन बुलाने की क्या ज़रूरत पड़ जाएगी? उनका क्या जुर्म है? हाल ही की बात है, मैं  पुलवामा में था जहां दो पिताओं को पुलिस ने हिरासत में रखा हुआ था, क्योंकि उनके बच्चे संगबाज़ी के लिए पुलिस द्वारा वांछित थे। मैंने पुलिस स्टेशन जा कर उनसे साफ कहा कि यह सीधे-सीधे अपहरण है। क्या तुम्हारा हिंदुस्तानी क़ानून इस बात की इजाज़त देता है कि तुम किसी अभियुक्त के पिता को हिरासत में ले लो? क्या अभियुक्त की जगह किसी और निर्दोष को हिरासत में लिया जा सकता है?”

मलिक ने सफ़र-ए-आज़ादी (कश्मीर की आज़ादी के पक्ष में चलाया गया हस्ताक्षर अभियान) का समय याद करते हुए बताया कि कैसे उस लोकतांत्रिक अभियान में उनके साथ जुड़े दो युवकों को हिरासत में टॉर्चर किया गया और इसके बाद उन दोनो ने हथियार उठा लिए और बाग़ी क़तारों में शामिल हो गए। इस अभियान के बारे में उन्होंने कहा, आज का युवा इस बात से क़ायल हो गया है कि अहिंसक संघर्ष में कोई उम्मीद नहीं है। इस तरह के संघर्ष के लिए अब कोई जगह नहीं बची है। दो या तीन लड़के जो मेरे साथ सफ़र-ए-आज़ादी में काम कर रहे थे, सशस्त्र बाग़ी क़तारों में शामिल हो गए। उनका कारण भी वही था। वे पुलिस द्वारा प्रताड़ित किए गए और उनका उत्पीड़न किया गया। राज्य और उसके सुरक्षा बल की कोई जवाबदेही नहीं है।”

मलिक ने यह भी आरोप लगाया की सुरक्षा बल के सदस्यों को लड़कों की निर्मम हत्या करने के बाद बरी कर दिया जाता है। मलिक ने बताया, “अब आप देख ही सकते हैं कि उन्होंने क्या किया जब मोदी यहां आया। एचएमटी क्षेत्र में रहने वाले इंजीनियरिंग का छात्र गोहर डार सुरक्षा बलो द्वारा मार दिया गया। पुलिस एसएसपी ने ऑन  रिकार्ड बोला कि  उन्होंने सिर्फ आंसू गैस के गोले फायर किए थे। उन्होंने आधिकारिक जांच समिति गठित की जिसने कहा कि सीआरपीएफ के पास से कोई गोलियां ग़ायब नहीं मिली और इस कारण वे बरी कर दिए गए!”

22 साल के युवा गोहर अहमद डार की हत्या सिर पर आंसू गैस के गोले लगने से कश्मीर में प्रधानमंत्री मोदी के जाने के बाद विरोध प्रदर्शनों के दौरान हुई। मलिक ने तर्क दिया, “जब लड़के देखते हैं कि कैसे सीआरपीएफ के सैनिकों को बरी कर दिया गया, क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि इस बात का उनके ऊपर गहरा असर होता होगा? जब वे यह देखते हैं कि  कैसे एक युवा लड़के को सड़क पर अहिंसक विरोध के दौरान मार दिया जाता है तो वे सोचते हैं कि इससे बेहतर तो हाथ में बंदूक ले कर मरना है।”

सफर-ए-आज़ादी के पहले दिन पर यासीन मलिक – Reuters/दानिश इस्माइल

मलिक ने बताया कि कैसे 1996 में उनके संगठन द्वारा किए गए शस्त्रविराम के बाद उनके साथियों की बेरहमी से हत्या कर दी गई। उन्होंने कहा, “जब हमने 1996 में हथियार छोड़ शस्त्रविराम का निर्णय लिया, उसके तुरंत बाद हमारे 600 साथियों को मार दिया गया। हिंदुस्तानी राज्य हमें आतंकी आंदोलन कहता रहा और हमने उसे ग़लत साबित किया। 116 दिन की सफ़र-ए-आज़ादी यात्रा कश्मीर में कश्मीर की आज़ादी के लिए की गई एकमात्र लोकतांत्रिक प्रक्रिया थी। हमारे पास 15 लाख आज़ादी के हक़ में किए गए हस्ताक्षर मौजूद हैं। हमने फिर से देखा कि हिंदुस्तानी सरकार ने हमारे साथ क्या बर्ताव किया। पता नहीं कितनी बार मुझे मारने की कोशिशें की गई हैं। मैं सैकड़ों बार हिरासत में लिया गया हूं। वर्ष 2002 में मुझे जम्मू में टॉर्चर किया गया। मैंने अपने दाएं कान से सुनने की शक्ति खो दी। 1999 में मुझे जोधपुर जेल भेजा गया और वहां भी टॉर्चर किया गया।

मलिक को ऐसा लगता है कि जो आज के युवाओं के साथ हो रहा है, वह उनके साथ पहले हो चुका है। वह कहते हैं, “लड़के उन्हीं चीजों का सामना फिर से कर रहे हैं,” मलिक ने नाराज़गी के भाव से अपनी रखते हुए कहा, “2008 में कश्मीर में क्या हो रहा था? यही युवा आज़ादी के लिए सड़कों पर उतर कर अहिंसक विरोध संघर्ष दर्ज कर रहे थे, इनके पास कोई बंदूकें नहीं थीं। इनको किसने अपने पैरों तले रौंदा? इनको किसने मार गिराया? इनको किसने टॉर्चर सेंटर भेजा?”

मलिक ने इस धारणा को भी किनारे लगा दिया जिसके अनुसार, आजकल केवल ‘शिक्षित लड़के’ ही हथियार उठा रहे हैं और 80 के दशक में ऐसा नहीं था। मलिक ने कहा, “क्या सन् 1980 में लड़के शिक्षित नहीं थे? शहीद अश्फ़ाक मजीद वानी टॉपर था। सिर्फ़ पढ़ाई में ही नहीं, वह खेल कूद में भी अव्वल था। क्या वह कोई गरीब परिवार से था? नदीम खतीब, जो अमरीका में पायलेट था, सशस्त्र विद्रोह में शामिल हुआ, किसलिए? क्या यह सब ख्याति पाने के लिए किया? इसके अलावा, इस बात को भी नोट किया जाना चाहिए कि यह सारे लड़के हथियार उठाने से पहले कई वर्षों तक अहिंसक संघर्ष से जुड़े हुए थे। यही कारण है कि वे कश्मीर के 5,000 साल के इतिहास की सबसे व्यापक और बड़ी क्रांति ला पाए।”   

मलिक ने यह भी बताया कि दुनिया में कहीं भी संघर्ष में छात्रों की भूमिका अहम होती है। मलिक ने समझाया, “फिर चाहे वह भारत की आज़ादी का आंदोलन हो, फ़िलिस्तीनी आंदोलन हो या इनके जैसे कई और आंदोलन, इन सभी आंदोलनों में शिक्षित युवा ही सामने की क़तारों में रहते हैं। आप दुनिया के किसी भी अशांति ग्रस्त क्षेत्र में जाइए, आपको वहां विरोध का नेतृत्व करते हुए छात्र ही मिलेंगे। 80 के दशक में कश्मीर में भी छात्रों ने विरोध प्रदर्शन किए। जेल, टॉर्चर, रेड-16 जैसे पूछताछ केंद्रों के अनुभवों के प्रसंग में ही इन छात्रों ने बंदूक उठाने का फैसला किया।”  

 

(इस लेख को एडिट करने में  शहादत खान, अंशुल राय और अक्षत जैन ने मदद की है)

मीर बासित हुसैन
मीर बासित हुसैन

सृनगर में रहने वाले पत्रकार मीर बासित हुसैन कश्मीर के पहले डिजिटल न्यूज प्लेटफॉर्म 'फ्री प्रेस कश्मीर' के सर्जक हैं| सृनगर में रहने वाले पत्रकार मीर बासित हुसैन कश्मीर के पहले डिजिटल न्यूज प्लेटफॉर्म 'फ्री प्रेस कश्मीर' के सर्जक हैं|