अनुवादक: अक्षत जैन
स्त्रोत: World Kashmir Awareness Forum
(7 जून 2022 को वर्ल्ड कश्मीर अवेयर्नेस फोरम की वेबसाईट पर प्रकाशित)
कश्मीर के सबसे प्रभावशाली, जाने-माने और चहेते लीडरों में से एक जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के चेयरमैन मोहम्मद यासीन मलिक को बुधवार, 25 मई 2022 (24 शव्वाल 1443) को हिन्दुस्तानी कोर्ट द्वारा आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई गई।
उनका अपराध?
वह अपने वतन को हिंदुस्तान से आज़ादी दिलवाना चाहते हैं। वह चाहते हैं कि हिंदुस्तान उस वादे पर खरा उतरे, जो उसने विश्व समुदाय और संयुक्त राष्ट्र से किया था, कि जम्मू और कश्मीर की आवाम को आत्म-निर्णय का अधिकार मिलेगा, जिससे वे अपने भविष्य और तकदीर का फैसला खुद कर सकेंगे।
उनके ‘लोग’ उन्हें प्यार से ‘यासीन साब’ बुलाते हैं। उनका जन्म 1966 में कश्मीर में हुआ था और वहीं उन्होंने स्कूल और कॉलेज की पढ़ाई की। छोटी उम्र से ही उनके अंदर राजनीतिक प्रवृत्तियां और लीडरशिप के गुण थे।
1975 में भारतीय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और शेख मोहम्मद अब्दुल्ला ने आवाम की आकांक्षाओं के खिलाफ जाकर एक ‘समझौते’ पर दस्तखत किए, जिसके चलते यासीन मलिक की किशोरावस्था तक नेशनल कान्फ्रेन्स कश्मीर की सबसे प्रबल पार्टी बन चुकी थी।
भारतीय सेना और अर्धसैनिक बलों द्वारा कश्मीर के बेगुनाह और निहत्थे लोगों पर की गई हिंसा के कारण वे लोग आधिकारिक नीतियों के खिलाफ अपना विरोध तक व्यक्त नहीं कर पा रहे थे। इन सब वारदातों ने यासीन को काफी परेशान किया। उन्होंने इस अत्याचार के खिलाफ विद्रोह किया और समान विचारधारा वाले युवाओं को इकट्ठा कर ‘ताला’ पार्टी का गठन किया।
1983 में उन्होंने सृनगर के स्टेडियम में इंडिया और वेस्ट-इंडीज के बीच खेले जा रहे अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट मैच को रोकने की कोशिश की। स्टेडियम में बैठे सभी कश्मीरी दर्शक वेस्ट-इंडीज का समर्थन कर रहे थे, जिससे भारत दौरे पर आई वेस्ट-इंडीज की टीम को तो खुशी थी लेकिन भारतीय टीम और अधिकारी इससे काफी परेशान हो रहे थे (इसके बाद से हिंदुस्तान ने कश्मीर में कभी कोई अंतरराष्ट्रीय खेल आयोजित नहीं किया)।
कश्मीरी आज़ादी आंदोलन के लीडर मकबूल भट्ट (जिनको 11 फरवरी 1984 को दिल्ली के तिहाड़ जेल में फांसी दे दी गई) के पहले शहादत दिवस पर मलिक के ग्रुप ने कश्मीर में प्रोटेस्ट आयोजित किए। 1985 में उन्होंने नेशनल कान्फ्रेन्स द्वारा चुनाव में खड़े किए गए उम्मीदवारों का सार्वजनिक रूप से विरोध किया। उनके साथ मार-पीट हुई, जिसके कारण उन्हें अस्पताल में भर्ती होना पड़ा। इसके कुछ ही समय बाद उन्हें गिरफ्तार करके तीन महीने के लिए ‘रेड 16’ पूछताछ केंद्र भेज दिया गया।
यह उनका जेल जाने और हिन्दुस्तानी अधिकारियों द्वारा शारीरिक टॉर्चर किए जाने का पहला अनुभव था।
इस अनुभव के कारण उन्होंने ताला पार्टी को इस्लामिक स्टूडेंट लीग (आईएसएल) में तब्दील कर दिया। इसने कश्मीरी युवा आंदोलन के प्रसिद्ध नेताओं को आकर्षित किया, जैसे अशफाक़ माजिद वाणी, जावेद मीर, शकील बक्शी, एजाज़ डार, महमूद सागर, फिरदौस शाह, मुश्ताक़ उल इस्लाम इत्यादि। इन लोगों के शामिल होने के बाद बहुत ही जल्द आईएसएल कश्मीर की सड़कों पर शक्ति का प्रदर्शन करने लगी।
यासीन मलिक चुनाव और राजनीति के मसलों में पूरी तरह से डूब गए। 2016 में ‘कश्मीर लाइफ’ की साइमा भट्ट को दिए इंटरव्यू में मलिक बताते हैं कि “उस समय सृनगर में नेशनल कान्फ्रेन्स के खिलाफ रैली निकालना लगभग अकल्पनीय था।”
आईएसएल और मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट (एमयूएफ) मिल-जुलकर काम कर रहे थे। एमयूएफ ने 1987 के राज्य विधानसभा चुनावों में कश्मीर घाटी में हर जगह नेशनल कान्फ्रेन्स के खिलाफ अपने उम्मीदवार खड़े किए।
आईएसएल ने चुनाव के लिए खुद के कोई उम्मीदवार खड़े नहीं किए, क्योंकि उन्हें भारतीय संविधान के तहत कराए गए चुनाव मंज़ूर नहीं थे। लेकिन उन्होंने सृनगर के सभी निर्वाचन क्षेत्रों में एमयूएफ के उम्मीदवारों के लिए सक्रिय प्रचार किया।
मालूम पड़ता है कि नेशनल कान्फ्रेन्स और एमयूएफ के बीच सबसे कड़ा मुकाबला अमीरा कदल निर्वाचन क्षेत्र में हुआ। मतदान की प्रक्रिया काफी जल्दी निपटा दी गई। अमीरा कदल निर्वाचन क्षेत्र के वोटों की गिनती सृनगर के बेमिना में स्थित गवर्नमेंट मेडिकल कॉलेज हॉस्टल में दो दिन तक चली।
ऊपर उल्लेखित इंटरव्यू में मलिक कहते हैं, “जब हम वहां पहुंचे तो हमने देखा कि एजेंट वोटों की हेरा-फेरी कर रहे हैं। एसएसपी गिल (स्टेशन के इन्चार्ज) वहां थे। जब मैंने उनसे पूछा कि यह सब क्या चल रहा है तो उन्होंने मुझे सलाह दी कि, ‘तुम मोस्ट वांटेड हो और मैं नहीं चाहता कि तुम्हारी यहां गिरफ़्तारी हो’।”
कुछ ही समय बाद पुलिस ने उनके ऑफिस पर छापा मारा और एमयूएफ की अधिकतर लीडरशिप को हिरासत में ले लिया। अशफाक़ और जावेद के साथ मलिक गिरफ़्तारी से बचने के लिए खिड़की से बाहर कूद गए।
यह बात सभी मानते हैं कि भारतीय राज्य तंत्र ने 1987 के चुनावों में धांधली कर फारूक अब्दुल्ला की कठपुतली सरकार को कश्मीर में स्थापित किया था। इसको लेकर घाटी में चारों ओर बहुत बवाल हुआ लेकिन उनकी सुनने वाला कौन था? इन वारदातों के कारण मलिक और उनके करीबी सहयोगियों सहित बहुत से कश्मीरियों ने हिन्दुस्तानी कब्जे के खिलाफ सक्रिय विद्रोह शुरू कर दिया।
1988 में अवैध हिन्दुस्तानी कब्जे के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह भड़क उठा। मलिक ने हिन्दुस्तानी शासन के खिलाफ बंदूक उठा ली। अगस्त 1990 में हुई एक लड़ाई में मलिक ज़ख्मी हो गए और उन्हें पकड़ लिया गया।
मीडिया इंटरव्यू में उन्होंने हमेशा यही कहा कि उन्हें मजबूरन ‘सशस्त्र संघर्ष’ करना पड़ा, क्योंकि भारतीय राज्य ने अहिंसक विरोध के लिए कोई जगह नहीं छोड़ी थी।
2001 में बीबीसी को दिए इंटरव्यू में मलिक ने कहा: “जब लोग यासीन मलिक को देखते हैं तो उन्हें तीन यासीन मलिक को देखना चाहिए—एक सन् 84 से 88 तक (स्टूडेंट एक्टिविस्ट), दूसरा 88 से 94 तक (मिलिटेन्ट) और तीसरा 94 के बाद (गांधीवादी)।”
उसी इंटरव्यू में उन्होंने आगे कहा, “मसला साफ है, कोर्ट में मेरे खिलाफ केस लंबित पड़े हैं, लेकिन अब 11 साल गुज़र चुके हैं और भारतीय सरकार ने मुकदमा शुरू भी नहीं किया है।”
उन्होंने 1994 में हिंसा त्याग दी थी।
तब से उन्हें कुछ-कुछ समय पर नियमित रूप से गिरफ्तार किया जा रहा है। हाल ही में उन पर ताजा हिन्दुस्तानी हमला तब हुआ जब उन्होंने स्वर्गीय सय्यद अली शाह गिलानी और मीरवाइज़ उमर फ़रूक के संग 2016 में जॉइन्ट रीज़िस्टन्स लीडरशिप (जेआरएल) के गठन की घोषणा की।
जेआरएल की हड़तालें प्रभावी थीं, क्योंकि उनके पास पूरी कश्मीरी आवाम का समर्थन था। लेकिन इसी के कारण उन्हें भारतीय सेना और अर्धसैनिक बलों के प्रकोप का भी सामना करना पड़ा।
2019 में यासीन मलिक के नेतृत्व वाले जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रन्ट (जेकेएलएफ) पर प्रतिबंध लगा दिया गया और मलिक को गिरफ्तार कर लिया गया। भारतीय राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) ने मलिक सहित कुछ और लोगों पर पाकिस्तान से फंड लेकर आतंकवाद और पत्थरबाज़ी को फाइनेन्स करने का आरोप लगाया।
कोर्ट के अंदर क्या हुआ निश्चित रूप से किसी को कुछ नहीं पता। ओपन ट्रायल कभी हुआ ही नहीं। बताया जा रहा है कि ‘जैक’, ‘जॉन’, ‘अल्फा’ जैसे कोड नेम वाले लगभग 50 अनाम गवाह बंद कोर्ट में पेश किए गए।
मुकदमे के दौरान मलिक ने अपने ऊपर लगाए गए आरोपों का विरोध किया और इस बात पर ज़ोर दिया कि वह स्वतंत्रता सेनानी हैं।
एसोसिएटेड प्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक मलिक ने कहा, “मेरे ऊपर लगाए गए आतंकवाद से संबंधित आरोप मनगढ़ंत, झूठे और राजनीति से प्रेरित हैं।”
एपी ने यह भी रिपोर्ट किया कि मलिक ने जज से कहा, “अगर आज़ादी के लिए लड़ना गुनाह है तो मैं यह गुनाह और उसके नतीजे स्वीकार करने के लिए तैयार हूं।”
यासीन मलिक की पत्नी मशाल हुसैन मलिक ने अपने ट्विटर अकाउंट पर लिखा, “हिन्दुस्तानी कंगारू कोर्ट ने मिनटों में फैसला सुनाया,” “प्रतिष्ठित लीडर कभी सरेन्डर नहीं करेंगे।”
कश्मीरी आवाम के लिए हिन्दुस्तानी कंगारू कोर्ट द्वारा यासीन मलिक को सुनाई गई सज़ा आश्चर्यजनक नहीं है। यह वही कोर्ट हैं, जिनने मकबूल भट्ट और अफ़ज़ल गुरु जैसे स्वतंत्रता सेनानियों का हिंदुस्तान की राजधानी दिल्ली में स्थित तिहाड़ जेल में अदालती मर्डर किया था।
गुरु के मामले में भारत के सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस ने स्वीकार किया था कि सबूत संयोगवश हैं, लेकिन राष्ट्र की “सामूहिक अंतरात्मा की संतुष्टि” के लिए उनके खिलाफ दिए गए फैसले को कायम रखना जरूरी है।
26 फरवरी 2016 को मुंबई से चलने वाली न्यूज वेबसाइट फर्स्टपोस्ट ने रिपोर्ट किया, “पार्लियामेंट पर किए गए आतंकवादी हमले में उनकी भूमिका के लिए 2013 में जिन अफ़ज़ल गुरु को मृत्युदंड की सज़ा दी गई, वह विश्वविद्यालयों में विरोध प्रदर्शनों के बाद राजनीतिक तूफान का केंद्र बन गए हैं। जो लोग उनको दिए गए मृत्युदंड के विरोध में हैं, वे उसे ‘अदालती मर्डर’ कहते हैं। उनका मानना है कि यह सज़ा सिर्फ शंकास्पद ‘सामूहिक अंतरात्मा’ की संतुष्टि के लिए दी गई।”
हालांकि यासीन मलिक को आजीवन कारावास की अमानवीय और क्रूर सज़ा सुनाई गई है, कश्मीर में हिंदुस्तान के आज तक के रिकॉर्ड को देखते हुए कहा जा सकता है कि हालात इससे भी बदतर हो सकते हैं।
गौरतलब है कि ‘यासीन साब’ पिछले कुछ सालों से हिन्दुस्तानी नेताओं के साथ शांतिपूर्ण समझौता करने की कोशिश में लगे थे। उन्हें इन्हीं नेताओं ने सबसे उच्च स्तर पर बातचीत करने के लिए यह आश्वासन देते हुए आमंत्रित किया था कि शांति कायम रहेगी। यहां तक कि तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी उनसे इसी सिलसिले में मिले थे।
अब इस पूरे घटनाक्रम के बाद कोई भी भारतीय प्रशासन कश्मीरियों या अन्य पड़ोसी देशों के साथ बातचीत करते वक्त भरोसा करने लायक नहीं रह गया है।
मौजूदा फासीवादी प्रशासन के प्लान और इरादे और भी भयावह हैं। अंतरराष्ट्रीय समुदाय को हिंदुस्तान के ऐतिहासिक व्यवहार पर गौर करना होगा। यासीन मलिक जैसे शांतिप्रिय लीडरों को कैद करके हिन्दुस्तानी प्रशासन उस क्षेत्र में शांति के सारे रास्ते बंद कर रहा है और कश्मीर के युवाओं को ऐसे कृत्यों की ओर धकेल रहा है, जिनसे कश्मीर में चल रहे टकराव का शांतिपूर्वक समाधान और भी मुश्किल हो जाएगा।
हम संयुक्त राष्ट्र और अन्य अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं से अपील करते हैं कि अपनी दीर्घकालिक चुप्पी को तोड़ें और भारतीय सरकार पर ज़ोर डालें कि वह न्याय के अंतरराष्ट्रीय मानकों का पालन करे और यासीन मलिक को रिहा करे।