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अक्षत जैन एक संपादक, लेखक और अनुवादक हैं। उनकी मौलिक कृतियां 'द कारवां', 'स्क्रॉल', 'न्यूज़लॉन्ड्री' और 'द लीफलेट' जैसी पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं। इसके अतिरिक्त, वह बेंगलुरु में आर्ट एंड फोटोग्राफी के म्यूज़ियम के लिए मासिक अनुवाद परियोजनाओं पर काम करते हैं, और लेखकों, प्रकाशकों और गैर-सरकारी संगठनों के लिए फ्रीलांस आधार पर अंग्रेजी-से-हिंदी और हिंदी-से-अंग्रेजी अनुवाद के कार्य भी संभालते हैं।
हाल ही में उन्होंने अख्तर मोहिउद्दीन की एक लघु कथा संग्रह का हिंदी में अनुवाद किया है, जिसे नवारुण पब्लिकेशन्स द्वारा प्रकाशित किया जा रहा है।
यह कहानी अकेलेपन की एक तीखी, असहज झलक पेश करती है—एक ऐसे पुरुष की जो साथी की तलाश में अपनी गाड़ी पर ‘औरत चाहिए’ का नोट चिपकाता है। लेकिन उसके भीतर की जड़ता, बनावटीपन और हिंसा की प्रवृत्ति धीरे-धीरे उजागर होती है। कहानी का केंद्रबिंदु है एडना—जो पहले जिज्ञासा से खिंचती है, फिर घृणा और अंत में भय के साथ उस अनुभव से खुद को निकाल लेती है। बुकोव्स्की की यह कहानी दिखाती है कि अकेलापन सिर्फ एक भाव नहीं, बल्कि एक डरावनी, अक्सर खतरनाक स्थिति बन सकती है, जब उसमें भावनात्मक गहराई की जगह केवल ज़रूरत और अधूरापन हो।
चार्ल्स बुकोव्स्कीकश्मीर में 2008 में हुए अमरनाथ भूमि आंदोलन के बाद सात बार सार्वजनिक सुरक्षा अधिनियम के तहत हिरासत में लिए जा चुके मसारत आलम भट्ट को इसी साल जून में जेल से रिहा किया गया। तेज़-तर्रार अंग्रेजी बोलने वाले साइंस ग्रेजुएट भट्ट अब भारत के खिलाफ कश्मीर छोड़ो आंदोलन का नेतृत्व कर रहे हैं, जिसने केन्द्रीय और राज्य सरकारों की नींद हराम कर रखी है। वर्तमान में अन्डरग्राउन्ड हुए मुस्लिम लीग के लीडर ने इस आंदोलन की शुरुआत साप्ताहिक ‘विरोध कैलेंडर’ जारी करने के साथ की थी। 11 जून 2010 को सुरक्षा बलों द्वारा एक किशोर की हत्या के बाद शुरू हुए हाल ही के विरोध प्रदर्शनों में उन्होंने घाटी में व्यापक हड़ताल का आह्वान किया था। इस विशेष इंटरव्यू में दिलनाज़ बोगा कश्मीर के मोस्ट वांटेड आदमी के साथ कुछ नई-पुरानी बातें करती हैं।
मसारत आलम भट्टजब शिकारी अपना जाल बिछाता है तो उसमें भालू और हिरण, सियार और खरगोश, सभी फंस जाते हैं। तब फिर जब भालू हिरण की गर्दन मरोड़ता है और सियार खरगोश को दबोचता है, तो हम भालू को कोसते हैं और सियार को फटकारते हैं, लेकिन भूल जाते हैं उस जाल को जिसके कारण यह सब कुछ हुआ।
आरिफ़ अयाज़ परेमेरे दोस्तों, हमारी कल्पना उनकी सेना से ज्यादा ताकतवर है। वे बारंबार गलत साबित हुए हैं। हमें आज़ादी की भावना को ज़िंदा रखना होगा। हमारे सामने केवल वही एक विकल्प है, क्योंकि हमें किसी और तरह से जीना नहीं आता।
मोहम्मद जुनैदहर शासक की तरह औरंगज़ेब न तो कोई नैतिक आदर्श थे, न ही महज़ एक खलनायक। एक राजा की तरह उन्होंने भी अपनी प्रजा के प्रति ज़िम्मेदारी को आत्मसात किया था। लेकिन इन सब तथ्यों से इतर, यह भी सच है कि औरंगज़ेब की मृत्यु को तीन सौ साल से ज़्यादा हो चुके हैं। आज उनके ख़िलाफ़ चलाया जा रहा यह अत्यधिक दुश्मनी से भरा अभियान एक अजीब विडंबना को जन्म देता है—वह यह कि यह अभियान खुद उसी विकृत छवि को दोहराता है, जो सत्ता में बैठे लोग औरंगज़ेब को लेकर गढ़ते आए हैं। देश की असली समस्याओं को सुलझाने और देश की सामूहिक ऊर्जा को सकारात्मक दिशा में मोड़ने के बजाय, हमारे नेतृत्व का ध्यान इस समय औरंगज़ेब की क़ब्र पर बहस करने और मस्जिदों के नीचे मंदिर खोजने में लगा हुआ है।
आनंद तेलतुंबडेजिस देश ने अति-भारी सैन्य बल के ज़रिये कश्मीर पर अवैध क़ब्ज़ा जमा रखा है, वही देश कश्मीर में आज़ाद चुनाव आयोजित करवाने के बड़े-बड़े दावे करता दिखता है। इस विडंबना के कारण कई अजीबोगरीब घटनाएं होती हैं। एक ऐसी वारदात का ज़िक्र अख़्तर मोहिउद्दीन इस अनोखी कहानी में करते हैं।
अख्तर मोहिउद्दीनएकबाल अहमद आतंकवाद के विषय पर बात करके बताते हैं कि आतंकवाद को किन तरीकों से रोका जा सकता है: दोहरे मापदंडों के अतिरेक से बचें। अगर आप दोहरे मापदंड अपनाते हैं, तो आपको भी दोहरे मापदंडों से ही जवाब मिलेगा। इसका इस्तेमाल मत करें। अपने सहयोगियों के आतंकवाद का समर्थन न करें। उनकी निंदा करें। उनसे लड़ें। उन्हें सज़ा दें। कारणों पर ध्यान दें और उन्हें सुधारने की कोशिश करें। समस्याओं के मूल कारणों को समझें और हल निकालें। सैन्य समाधान से बचें। आतंकवाद एक राजनीतिक समस्या है, और इसका समाधान राजनीतिक होना चाहिए। राजनीतिक समाधान खोजें। सैन्य समाधान समस्याएं बढ़ाते हैं, सुलझाते नहीं। कृपया अंतरराष्ट्रीय क़ानून के ढांचे को मज़बूत करें और उसे सुदृढ़ बनाएं।
एकबाल अहमदकुछ परिस्थितियां ऐसी होती हैं जो अच्छे-भले इंसानों को हैवान बनने पर मजबूर कर देती हैं। कश्मीर के अंदर भारतीय राज्य की भूमिका कुछ ऐसी ही परिस्थितियों को बनाने और बनाए रखने की रही है। कश्मीर पर अपना अवैध राज कायम रखने के लिए भारतीय राज्य एक कश्मीरी को दूसरे कश्मीरी से लड़ने पर मजबूर करता है। जबकि कश्मीरी मजबूरी में बुरे काम कर रहे हैं और इसलिए अपनी इंसानियत कहीं न कहीं बचा पा रहे हैं, भारतीय राज्य अपनी इंसानियत अपनी स्वेच्छा से पूरी तरह से खो चुका है।
अख्तर मोहिउद्दीनबुरके और हिजाब को लेकर आज कल हिंदुस्तान में काफी बवाल चल रहे हैं। यह सब नया नहीं है। औरतों के ऊपर काबू पाने और रखने की राजनीति बहुत पुरानी है। यहां के हिंदुओं के प्रहार के सामने मुसलमान औरतें क्यों नकाब पहनती हैं या उतारती हैं, वह समझने में हमें यह लेख मदद कर सकता है। इस लेख में फ़्रांस के प्रहार के आगे अल्जीरिया की औरतों के बर्ताव को समझाया गया है। नकाब पहनना या उतारना औरतों के लिए इतना जरूरी नहीं है जितना कि वह न करना है जो कि उनके दुश्मन उनसे करवाना चाहते हैं। उसके अलावा, नकाब पहनना या उतरना एक भावुक विकल्प नहीं, बल्कि एक रणनीतिक विकल्प है।
फ्रांत्ज़ फ़ैनोन"अपने लिये जिये तो क्या जिये . . ." इंसान चाहे कहीं भी हों और किसी भी परिस्थिति में हों, वे किसी और के लिए और किसी और के माध्यम से जितने अच्छे से जी सकते हैं, उतने अच्छे से कभी खुद के लिए नहीं जी सकते। आज हम जिनको मानसिक रोग कहते हैं, उन में से अधिकतर इसी बात को न समझ पाने के संकेत हैं। हम क्योंकि ऐसा समझते हैं कि हमें किसी और के लिए नही सिर्फ अपने लिए जीना है, इसलिए हम अपने आप के लिए भी नहीं जी पाते। किसी ने सही ही कहा है, खुद का रास्ता दूसरे से होकर आता है। कुछ इसी तरह की बात इस कहानी में भी बताई गई है। जब हम किसी दुख से निपट नहीं पाते, तो हमें दिमाग को सुन्न करने वाली दवाइयों की नहीं, जीने के कारण की जरूरत होती है, क्योंकि जैसा कि किसी दार्शनिक ने कहा है, अगर इंसान के पास जीने की वजह है, तो वह किन्हीं भी परिस्थितियों को झेल सकता है। और किसी और के लिए जीने से अच्छी जीने की वजह क्या हो सकती है।
आरिफ़ अयाज़ परेआत्म-निर्णय का अधिकार पाने के लिए कश्मीर में किए जा रहे आंदोलन की बुनियाद को सुदृढ़ करने वाली मुख्य राजनीतिक घटनाओं का वृतांत। यह पहला भाग है जिस में हम भारत के कब्ज़े के पहले का इतिहास बता रहे हैं। दूसरे भाग में भारत के कब्ज़े के बाद का इतिहास बताया जाएगा।
मोहम्मद जुनैदआत्म-निर्णय का अधिकार पाने के लिए कश्मीर में किए जा रहे आंदोलन की बुनियाद को सुदृढ़ करने वाली मुख्य राजनीतिक घटनाओं का वृतांत। यह पहला भाग है जिस में हम भारत के कब्ज़े के पहले का इतिहास बता रहे हैं। दूसरे भाग में भारत के कब्ज़े के बाद का इतिहास बताया जाएगा।
मोहम्मद जुनैदआत्म-निर्णय का अधिकार पाने के लिए कश्मीर में किए जा रहे आंदोलन की बुनियाद को सुदृढ़ करने वाली मुख्य राजनीतिक घटनाओं का वृतांत। यह पहला भाग है जिस में हम भारत के कब्ज़े के पहले का इतिहास बता रहे हैं। दूसरे भाग में भारत के कब्ज़े के बाद का इतिहास बताया जाएगा।
मोहम्मद जुनैदयह कहानी मेजर अवतार सिंह की है, जो किसी समय भारतीय सेना के काउंटर-इन्सर्गेंसी यूनिट, 35 राष्ट्रीय राइफल का अफसर था। अवतार कश्मीरी मानवाधिकार वकील जलील अंद्रबी और कम से कम अट्ठाईस अन्य लोगों के क़त्ल के लिए वांटेड था। 9 जून 2012 को सलमा, कैलिफ़ोर्निया में उसने अपनी बीवी और तीन बच्चों को गोली मारने के बाद बंदूक अपनी ओर घुमा ली। देखा जाए तो अपने परिवार के प्रति अवतार का यह पागलपन/बर्बरता उसके पापों का भुगतान था। साथ ही यह तथ्य भी की और जो अन्य भारतीय सैनिक कश्मीर में तैनात रहते हैं, ऐसे नहीं तड़पते, सिर्फ भारतीय राष्ट्रीय परियोजना की निहित हिंसा का बयान भर है।
आरिफ़ अयाज़ परेजिन भयानक परिस्थितियों का सामना कक्कर पट्टी के खानों को करना पड़ा है, उससे यह मिथक तो ध्वस्त होता है कि विद्रोह से निपटते वक्त राज्य समुदायों के बीच फर्क करता है। खान गुर्जर हैं और उनके बारे में उनके संदर्भ को पूरी तरह से नकारते हुए यह गलत धारणा बनाई गई कि वह राज्य के उतने खिलाफ नहीं है जितने कि उनके कश्मीरी हमकौम, जिन्होंने आज़ादी के लिए राज्य के खिलाफ जंग का ऐलान कर दिया है। सिर्फ कक्कर पट्टी से ही 23 गुर्जर सेना से लड़ते हुए मारे गए हैं।
हिलाल मीर'हिंसा की नहीं जाती, करवाई जाती है।' यह वह वाक्य है, जिससे कोई भी आम हिंदुस्तानी कश्मीर की मौजूदा स्थिति को समझ सकता है, जिसे मीडिया और कथित सरकारी टट्टु-लेखकों ने अपने रिसर्च पेपरों में 'चरमपंथियों' के खिलाफ हिंदुस्तानी सेना का युद्ध घोषित कर रखा है। एक आम कश्मीरी क्यों इतना 'हिंसक' हो जाता है? और क्या वह वाकई 'हिंसक' है या उसे हिंसक बनने के लिए मजबूर किया गया है? क्या वजह है कि इतने लंबे समय से लाखों हिंदुस्तानी सैनिकों की मौजूदगी के बावजूद कश्मीर में हिंसा रुकने के बजाय बढ़ती ही जा रही है? आख़िर वे कौन से तथ्य हैं कि एक आम कश्मीरी का गुस्सा इतने चरम पर पहुंचा हुआ है कि जो लोग उनके साथ बदसलूकी करते हैं, उनके पास उन्हें मारने के अलावा और कोई ऑपशन नहीं बचता? ये कुछ ऐसे सवाल हैं, जिन्हें प्रस्तुत कहानी के जरिये समझा जा सकता है। कि कैसे हिंदुस्तानी सेना की मौजूदगी ने एक आम कश्मीरी मियां-बीवी की निजी ज़िंदगी को भी इस कद्र प्रभावित किया कि रुक़सान जैसी लड़की ऐसा क़दम उठाने पर मजबूर हो जाती है, जिसे वह शायद ही आम स्थिति में अंजाम देने का सोचती।
आरिफ़ अयाज़ परेअमरीकी काले युवाओं को संबोधित यह ख़त जेम्स बाल्डविन ने पचास साल पहले लिखा था। इस ख़त की प्रासंगिकता अमरीका में आज भी वैसी ही है जैसी कि इसके लिखते समय थी, साथ ही यह ख़त हिंदुस्तान के जातिवादी समाज के लिए भी उतना ही प्रासंगिक है। हिंदुस्तान में भी सैंकड़ों युवाओं को केवल इसलिए मार दिया जाता है कि वे अपनी जाति, पहचान और सामाजिक दर्जे से अलग हटकर कुछ नया करना चाहते हैं। वे बताना चाहते हैं कि समाज ने जो पहचान उन पर थोप दी है, वे उससे कहीं बेहतर है। लेकिन हमारा समाज इस आवाज़ को बस्तियों में ही दबाकर ख़त्म कर देना चाहता है। बिना किसी अपराधबोध के, पूरी निर्दोषता के साथ। ऐसे अपराधी खुद के ऊंची जाति में होने का फायदा उठाते हैं और विभिन्न तरीकों से जातिवाद को बरकरार रखने के लिए सक्रिय रहते हैं। लेकिन अगर आप इनसे कभी जाति की बात करते हैं तो कहते हैं कि ‘बड़े कड़वे’ हो रहे हो। निचली जातियों के प्रतिरोध से ऊंची जाति के लोगों को डर लगता है। उनको डर लगता है कि वे अपनी पहचान खो देंगे। ऊंची जाति का होना उनकी पहचान है, और ज़ाहिर है कि जातिवाद का विनाश होने पर उनकी यह पहचान भी नहीं रहेगी। इसके विपरीत एक जो सवाल पैदा होता है वह यह है कि क्या हर पहचान पवित्र है? क्या हमें ऐसी पहचानों को नहीं ठुकराना चाहिए जो दूसरों के शोषण का आधार बनती हों? यह लेख सिर्फ़ अमरीका के काले युवाओं के लिए ही नहीं, यह हिंदुस्तान के दलित, मुसलमान, आदिवासी और अन्य सभी पिछड़ी जाति के युवाओं के लिए भी है। यह लेख दुनिया के उन सभी युवाओं के लिए है जो अपने-अपने देश और समाज में नस्लवाद और जातिवाद जैसी घिनौनी व्यवस्थाओं और धारणाओं से पीड़ित हैं। ऐसे युवाओं के लिए बाल्डविन के यह शब्द तब तक याद रखने लायक रहेंगे जब तक नस्लवाद और जातिवाद का पूरी तरह से खात्मा नहीं हो जाता: ‘जो भी वे मानते हैं, करते हैं और उसे तुम्हें भोगने पर मजबूर करते हैं, वह तुम्हारी हीनता को बयान नहीं करता, बल्कि उनकी अमानवीयता और डर को उजागर करता है।’
जेम्स बाल्डविनजब भी कश्मीरी आज़ादी मांगते हैं, तो हिन्दुस्तानी पूछते हैं ‘पंडितों का क्या’? ये सवाल आपके ज़ेहन में उठा हो या ना उठा हो, आप तक पहुँच तो ज़रूर चुका होगा| विडंबना की बात यह है कि इस सवाल को हर जगह दोहराया जाता है लेकिन इसका जवाब कोई ना तो देता है और ना ही देने की कोशिश करता है| क्या आपने कभी सोचा है कि इस सवाल का जवाब क्या हो सकता है? इस लेख में एक कश्मीरी ने इस सवाल का जवाब देने की कोशिश की है|
आरिफ़ अयाज़ परेऔरतों पर ज़ोर डाला जाता है कि वे अपने सपनों और अपनी कल्पना-शक्ति को मार कर अपने आप को आदर्श पत्नी, आदर्श बेटी, आदर्श बहु, आदर्श माँ वगैरह साबित करें| इस नैतिक दबाव का उनके ऊपर जो असर होता है, उसे नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है| इस कहानी में उस दबाव से पनपी एक मानसिक दशा का उल्लेख है|
एंजेलिका गोरोडिशरयह कहानी अकेलेपन की एक तीखी, असहज झलक पेश करती है—एक ऐसे पुरुष की जो साथी की तलाश में अपनी गाड़ी पर ‘औरत चाहिए’ का नोट चिपकाता है। लेकिन उसके भीतर की जड़ता, बनावटीपन और हिंसा की प्रवृत्ति धीरे-धीरे उजागर होती है। कहानी का केंद्रबिंदु है एडना—जो पहले जिज्ञासा से खिंचती है, फिर घृणा और अंत में भय के साथ उस अनुभव से खुद को निकाल लेती है। बुकोव्स्की की यह कहानी दिखाती है कि अकेलापन सिर्फ एक भाव नहीं, बल्कि एक डरावनी, अक्सर खतरनाक स्थिति बन सकती है, जब उसमें भावनात्मक गहराई की जगह केवल ज़रूरत और अधूरापन हो।
चार्ल्स बुकोव्स्कीजब शिकारी अपना जाल बिछाता है तो उसमें भालू और हिरण, सियार और खरगोश, सभी फंस जाते हैं। तब फिर जब भालू हिरण की गर्दन मरोड़ता है और सियार खरगोश को दबोचता है, तो हम भालू को कोसते हैं और सियार को फटकारते हैं, लेकिन भूल जाते हैं उस जाल को जिसके कारण यह सब कुछ हुआ।
आरिफ़ अयाज़ परेजिस देश ने अति-भारी सैन्य बल के ज़रिये कश्मीर पर अवैध क़ब्ज़ा जमा रखा है, वही देश कश्मीर में आज़ाद चुनाव आयोजित करवाने के बड़े-बड़े दावे करता दिखता है। इस विडंबना के कारण कई अजीबोगरीब घटनाएं होती हैं। एक ऐसी वारदात का ज़िक्र अख़्तर मोहिउद्दीन इस अनोखी कहानी में करते हैं।
अख्तर मोहिउद्दीनकुछ परिस्थितियां ऐसी होती हैं जो अच्छे-भले इंसानों को हैवान बनने पर मजबूर कर देती हैं। कश्मीर के अंदर भारतीय राज्य की भूमिका कुछ ऐसी ही परिस्थितियों को बनाने और बनाए रखने की रही है। कश्मीर पर अपना अवैध राज कायम रखने के लिए भारतीय राज्य एक कश्मीरी को दूसरे कश्मीरी से लड़ने पर मजबूर करता है। जबकि कश्मीरी मजबूरी में बुरे काम कर रहे हैं और इसलिए अपनी इंसानियत कहीं न कहीं बचा पा रहे हैं, भारतीय राज्य अपनी इंसानियत अपनी स्वेच्छा से पूरी तरह से खो चुका है।
अख्तर मोहिउद्दीन"अपने लिये जिये तो क्या जिये . . ." इंसान चाहे कहीं भी हों और किसी भी परिस्थिति में हों, वे किसी और के लिए और किसी और के माध्यम से जितने अच्छे से जी सकते हैं, उतने अच्छे से कभी खुद के लिए नहीं जी सकते। आज हम जिनको मानसिक रोग कहते हैं, उन में से अधिकतर इसी बात को न समझ पाने के संकेत हैं। हम क्योंकि ऐसा समझते हैं कि हमें किसी और के लिए नही सिर्फ अपने लिए जीना है, इसलिए हम अपने आप के लिए भी नहीं जी पाते। किसी ने सही ही कहा है, खुद का रास्ता दूसरे से होकर आता है। कुछ इसी तरह की बात इस कहानी में भी बताई गई है। जब हम किसी दुख से निपट नहीं पाते, तो हमें दिमाग को सुन्न करने वाली दवाइयों की नहीं, जीने के कारण की जरूरत होती है, क्योंकि जैसा कि किसी दार्शनिक ने कहा है, अगर इंसान के पास जीने की वजह है, तो वह किन्हीं भी परिस्थितियों को झेल सकता है। और किसी और के लिए जीने से अच्छी जीने की वजह क्या हो सकती है।
आरिफ़ अयाज़ परेयह कहानी मेजर अवतार सिंह की है, जो किसी समय भारतीय सेना के काउंटर-इन्सर्गेंसी यूनिट, 35 राष्ट्रीय राइफल का अफसर था। अवतार कश्मीरी मानवाधिकार वकील जलील अंद्रबी और कम से कम अट्ठाईस अन्य लोगों के क़त्ल के लिए वांटेड था। 9 जून 2012 को सलमा, कैलिफ़ोर्निया में उसने अपनी बीवी और तीन बच्चों को गोली मारने के बाद बंदूक अपनी ओर घुमा ली। देखा जाए तो अपने परिवार के प्रति अवतार का यह पागलपन/बर्बरता उसके पापों का भुगतान था। साथ ही यह तथ्य भी की और जो अन्य भारतीय सैनिक कश्मीर में तैनात रहते हैं, ऐसे नहीं तड़पते, सिर्फ भारतीय राष्ट्रीय परियोजना की निहित हिंसा का बयान भर है।
आरिफ़ अयाज़ परे'हिंसा की नहीं जाती, करवाई जाती है।' यह वह वाक्य है, जिससे कोई भी आम हिंदुस्तानी कश्मीर की मौजूदा स्थिति को समझ सकता है, जिसे मीडिया और कथित सरकारी टट्टु-लेखकों ने अपने रिसर्च पेपरों में 'चरमपंथियों' के खिलाफ हिंदुस्तानी सेना का युद्ध घोषित कर रखा है। एक आम कश्मीरी क्यों इतना 'हिंसक' हो जाता है? और क्या वह वाकई 'हिंसक' है या उसे हिंसक बनने के लिए मजबूर किया गया है? क्या वजह है कि इतने लंबे समय से लाखों हिंदुस्तानी सैनिकों की मौजूदगी के बावजूद कश्मीर में हिंसा रुकने के बजाय बढ़ती ही जा रही है? आख़िर वे कौन से तथ्य हैं कि एक आम कश्मीरी का गुस्सा इतने चरम पर पहुंचा हुआ है कि जो लोग उनके साथ बदसलूकी करते हैं, उनके पास उन्हें मारने के अलावा और कोई ऑपशन नहीं बचता? ये कुछ ऐसे सवाल हैं, जिन्हें प्रस्तुत कहानी के जरिये समझा जा सकता है। कि कैसे हिंदुस्तानी सेना की मौजूदगी ने एक आम कश्मीरी मियां-बीवी की निजी ज़िंदगी को भी इस कद्र प्रभावित किया कि रुक़सान जैसी लड़की ऐसा क़दम उठाने पर मजबूर हो जाती है, जिसे वह शायद ही आम स्थिति में अंजाम देने का सोचती।
आरिफ़ अयाज़ परेऔरतों पर ज़ोर डाला जाता है कि वे अपने सपनों और अपनी कल्पना-शक्ति को मार कर अपने आप को आदर्श पत्नी, आदर्श बेटी, आदर्श बहु, आदर्श माँ वगैरह साबित करें| इस नैतिक दबाव का उनके ऊपर जो असर होता है, उसे नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है| इस कहानी में उस दबाव से पनपी एक मानसिक दशा का उल्लेख है|
एंजेलिका गोरोडिशरकश्मीर में 2008 में हुए अमरनाथ भूमि आंदोलन के बाद सात बार सार्वजनिक सुरक्षा अधिनियम के तहत हिरासत में लिए जा चुके मसारत आलम भट्ट को इसी साल जून में जेल से रिहा किया गया। तेज़-तर्रार अंग्रेजी बोलने वाले साइंस ग्रेजुएट भट्ट अब भारत के खिलाफ कश्मीर छोड़ो आंदोलन का नेतृत्व कर रहे हैं, जिसने केन्द्रीय और राज्य सरकारों की नींद हराम कर रखी है। वर्तमान में अन्डरग्राउन्ड हुए मुस्लिम लीग के लीडर ने इस आंदोलन की शुरुआत साप्ताहिक ‘विरोध कैलेंडर’ जारी करने के साथ की थी। 11 जून 2010 को सुरक्षा बलों द्वारा एक किशोर की हत्या के बाद शुरू हुए हाल ही के विरोध प्रदर्शनों में उन्होंने घाटी में व्यापक हड़ताल का आह्वान किया था। इस विशेष इंटरव्यू में दिलनाज़ बोगा कश्मीर के मोस्ट वांटेड आदमी के साथ कुछ नई-पुरानी बातें करती हैं।
मसारत आलम भट्टमेरे दोस्तों, हमारी कल्पना उनकी सेना से ज्यादा ताकतवर है। वे बारंबार गलत साबित हुए हैं। हमें आज़ादी की भावना को ज़िंदा रखना होगा। हमारे सामने केवल वही एक विकल्प है, क्योंकि हमें किसी और तरह से जीना नहीं आता।
मोहम्मद जुनैदहर शासक की तरह औरंगज़ेब न तो कोई नैतिक आदर्श थे, न ही महज़ एक खलनायक। एक राजा की तरह उन्होंने भी अपनी प्रजा के प्रति ज़िम्मेदारी को आत्मसात किया था। लेकिन इन सब तथ्यों से इतर, यह भी सच है कि औरंगज़ेब की मृत्यु को तीन सौ साल से ज़्यादा हो चुके हैं। आज उनके ख़िलाफ़ चलाया जा रहा यह अत्यधिक दुश्मनी से भरा अभियान एक अजीब विडंबना को जन्म देता है—वह यह कि यह अभियान खुद उसी विकृत छवि को दोहराता है, जो सत्ता में बैठे लोग औरंगज़ेब को लेकर गढ़ते आए हैं। देश की असली समस्याओं को सुलझाने और देश की सामूहिक ऊर्जा को सकारात्मक दिशा में मोड़ने के बजाय, हमारे नेतृत्व का ध्यान इस समय औरंगज़ेब की क़ब्र पर बहस करने और मस्जिदों के नीचे मंदिर खोजने में लगा हुआ है।
आनंद तेलतुंबडेएकबाल अहमद आतंकवाद के विषय पर बात करके बताते हैं कि आतंकवाद को किन तरीकों से रोका जा सकता है: दोहरे मापदंडों के अतिरेक से बचें। अगर आप दोहरे मापदंड अपनाते हैं, तो आपको भी दोहरे मापदंडों से ही जवाब मिलेगा। इसका इस्तेमाल मत करें। अपने सहयोगियों के आतंकवाद का समर्थन न करें। उनकी निंदा करें। उनसे लड़ें। उन्हें सज़ा दें। कारणों पर ध्यान दें और उन्हें सुधारने की कोशिश करें। समस्याओं के मूल कारणों को समझें और हल निकालें। सैन्य समाधान से बचें। आतंकवाद एक राजनीतिक समस्या है, और इसका समाधान राजनीतिक होना चाहिए। राजनीतिक समाधान खोजें। सैन्य समाधान समस्याएं बढ़ाते हैं, सुलझाते नहीं। कृपया अंतरराष्ट्रीय क़ानून के ढांचे को मज़बूत करें और उसे सुदृढ़ बनाएं।
एकबाल अहमदबुरके और हिजाब को लेकर आज कल हिंदुस्तान में काफी बवाल चल रहे हैं। यह सब नया नहीं है। औरतों के ऊपर काबू पाने और रखने की राजनीति बहुत पुरानी है। यहां के हिंदुओं के प्रहार के सामने मुसलमान औरतें क्यों नकाब पहनती हैं या उतारती हैं, वह समझने में हमें यह लेख मदद कर सकता है। इस लेख में फ़्रांस के प्रहार के आगे अल्जीरिया की औरतों के बर्ताव को समझाया गया है। नकाब पहनना या उतारना औरतों के लिए इतना जरूरी नहीं है जितना कि वह न करना है जो कि उनके दुश्मन उनसे करवाना चाहते हैं। उसके अलावा, नकाब पहनना या उतरना एक भावुक विकल्प नहीं, बल्कि एक रणनीतिक विकल्प है।
फ्रांत्ज़ फ़ैनोनआत्म-निर्णय का अधिकार पाने के लिए कश्मीर में किए जा रहे आंदोलन की बुनियाद को सुदृढ़ करने वाली मुख्य राजनीतिक घटनाओं का वृतांत। यह पहला भाग है जिस में हम भारत के कब्ज़े के पहले का इतिहास बता रहे हैं। दूसरे भाग में भारत के कब्ज़े के बाद का इतिहास बताया जाएगा।
मोहम्मद जुनैदआत्म-निर्णय का अधिकार पाने के लिए कश्मीर में किए जा रहे आंदोलन की बुनियाद को सुदृढ़ करने वाली मुख्य राजनीतिक घटनाओं का वृतांत। यह पहला भाग है जिस में हम भारत के कब्ज़े के पहले का इतिहास बता रहे हैं। दूसरे भाग में भारत के कब्ज़े के बाद का इतिहास बताया जाएगा।
मोहम्मद जुनैदआत्म-निर्णय का अधिकार पाने के लिए कश्मीर में किए जा रहे आंदोलन की बुनियाद को सुदृढ़ करने वाली मुख्य राजनीतिक घटनाओं का वृतांत। यह पहला भाग है जिस में हम भारत के कब्ज़े के पहले का इतिहास बता रहे हैं। दूसरे भाग में भारत के कब्ज़े के बाद का इतिहास बताया जाएगा।
मोहम्मद जुनैदजिन भयानक परिस्थितियों का सामना कक्कर पट्टी के खानों को करना पड़ा है, उससे यह मिथक तो ध्वस्त होता है कि विद्रोह से निपटते वक्त राज्य समुदायों के बीच फर्क करता है। खान गुर्जर हैं और उनके बारे में उनके संदर्भ को पूरी तरह से नकारते हुए यह गलत धारणा बनाई गई कि वह राज्य के उतने खिलाफ नहीं है जितने कि उनके कश्मीरी हमकौम, जिन्होंने आज़ादी के लिए राज्य के खिलाफ जंग का ऐलान कर दिया है। सिर्फ कक्कर पट्टी से ही 23 गुर्जर सेना से लड़ते हुए मारे गए हैं।
हिलाल मीरअमरीकी काले युवाओं को संबोधित यह ख़त जेम्स बाल्डविन ने पचास साल पहले लिखा था। इस ख़त की प्रासंगिकता अमरीका में आज भी वैसी ही है जैसी कि इसके लिखते समय थी, साथ ही यह ख़त हिंदुस्तान के जातिवादी समाज के लिए भी उतना ही प्रासंगिक है। हिंदुस्तान में भी सैंकड़ों युवाओं को केवल इसलिए मार दिया जाता है कि वे अपनी जाति, पहचान और सामाजिक दर्जे से अलग हटकर कुछ नया करना चाहते हैं। वे बताना चाहते हैं कि समाज ने जो पहचान उन पर थोप दी है, वे उससे कहीं बेहतर है। लेकिन हमारा समाज इस आवाज़ को बस्तियों में ही दबाकर ख़त्म कर देना चाहता है। बिना किसी अपराधबोध के, पूरी निर्दोषता के साथ। ऐसे अपराधी खुद के ऊंची जाति में होने का फायदा उठाते हैं और विभिन्न तरीकों से जातिवाद को बरकरार रखने के लिए सक्रिय रहते हैं। लेकिन अगर आप इनसे कभी जाति की बात करते हैं तो कहते हैं कि ‘बड़े कड़वे’ हो रहे हो। निचली जातियों के प्रतिरोध से ऊंची जाति के लोगों को डर लगता है। उनको डर लगता है कि वे अपनी पहचान खो देंगे। ऊंची जाति का होना उनकी पहचान है, और ज़ाहिर है कि जातिवाद का विनाश होने पर उनकी यह पहचान भी नहीं रहेगी। इसके विपरीत एक जो सवाल पैदा होता है वह यह है कि क्या हर पहचान पवित्र है? क्या हमें ऐसी पहचानों को नहीं ठुकराना चाहिए जो दूसरों के शोषण का आधार बनती हों? यह लेख सिर्फ़ अमरीका के काले युवाओं के लिए ही नहीं, यह हिंदुस्तान के दलित, मुसलमान, आदिवासी और अन्य सभी पिछड़ी जाति के युवाओं के लिए भी है। यह लेख दुनिया के उन सभी युवाओं के लिए है जो अपने-अपने देश और समाज में नस्लवाद और जातिवाद जैसी घिनौनी व्यवस्थाओं और धारणाओं से पीड़ित हैं। ऐसे युवाओं के लिए बाल्डविन के यह शब्द तब तक याद रखने लायक रहेंगे जब तक नस्लवाद और जातिवाद का पूरी तरह से खात्मा नहीं हो जाता: ‘जो भी वे मानते हैं, करते हैं और उसे तुम्हें भोगने पर मजबूर करते हैं, वह तुम्हारी हीनता को बयान नहीं करता, बल्कि उनकी अमानवीयता और डर को उजागर करता है।’
जेम्स बाल्डविनजब भी कश्मीरी आज़ादी मांगते हैं, तो हिन्दुस्तानी पूछते हैं ‘पंडितों का क्या’? ये सवाल आपके ज़ेहन में उठा हो या ना उठा हो, आप तक पहुँच तो ज़रूर चुका होगा| विडंबना की बात यह है कि इस सवाल को हर जगह दोहराया जाता है लेकिन इसका जवाब कोई ना तो देता है और ना ही देने की कोशिश करता है| क्या आपने कभी सोचा है कि इस सवाल का जवाब क्या हो सकता है? इस लेख में एक कश्मीरी ने इस सवाल का जवाब देने की कोशिश की है|
आरिफ़ अयाज़ परेNo contents available.
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